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________________ जीवामिगमस्त्र कालतो भवति ? 'गोयमा ! सम्मादिही दुबिहे पन्नत्ते तं जहा-सादीए वा अपज्जवसिए' भगवानाह-गौत! सम्यग्दृष्टि द्विविधः तद्यथा-सादिकोवाऽपर्यवसित:-क्षायिक सम्यग्दृष्टि १ 'सादीए वा सपज्जवसिए' सादिको वा सपर्यवसित:-क्षायोपशमिकादि सम्यग्दर्शनी, 'तत्थ णं जे ते सादीए स पज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुडुत्त' तयोर्मध्ये योऽसौ सादिकः सपर्यवसितः स जघन्येनाऽन्तर्मुहर्तम् फर्मपरिणाम वैचित्र्ये तावत्कालादृचं पुनर्मिथ्यात्वगमनात्, 'उक्कोसेणं गवर्टि सागरोवमाई' साइरेगाई उत्कण पट् पप्टिः सातिरेक सागरोपमाणि ततोऽनन्तरं सम्मदिट्टी दुविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! सम्यग्दृष्टि दो प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' जैसे-'लाइए वा सपज्जवसिए, साइए वा अपज्ज षसिए' सोदि अपर्यवसित १ और सादि सपर्यवसित २ इनमें जो सादि अपर्यवसित सम्यग्दृष्टि जीव है वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव है और सादिक सपर्यवसित जो जीव है वह क्षायोपशमिक आदि सम्यग्दृष्टि जीव है 'तत्थणं जे से साइए सपज्जवसिए से जहणणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं छावहि सागरोवमाइं साइरेगाई' इनमें जो सादिक सपर्यवसित जीव है वह जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट से कुछ अधिक ६६ सागरोपम तक सम्यग्दृष्टि रूप से रहता है जघन्य समय व्यतीत हो जाने के बाद कर्म परिणाम की विचित्रता से वह पुनः मिथ्या दृष्टि हो जाता है तथा जो उत्कृष्ट समय कहा गया है उसका तात्पर्य ऐसा है कि इतने काल के बाद क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन छूट जाता प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा! सम्मदिवी दुविहे पण्णत्ते है गीतम! सभ्यष्टि 04 मे. प्रा२ना उपामा माया छ. 'तं जहा' भ3-'साइए वा सपज्जवसिए, साइए वा अपज्जवसिए' साह सपय वसित १ मन माह मपर्य:વસિત ૨ તેમાં જે સાદિ અપર્યાવસિત સમ્યગ્દષ્ટિ જીવ છે. તે ક્ષાયિક સમ્યગ્દષ્ટિ જીવ છે. અને સાદિ સપર્યાવસિત જે જીવ છે. તે ક્ષાપશમિક विगेरे सभ्यष्टि १ छ. 'तत्थ ण जे से साइए सपज्जबसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं छाबढि सागरोवमाई तेभा २ स४ सय वसित ७१ છે. તે જઘન્યથી એક અંતમુહૂત પર્યન્ત અને ઉત્કૃષ્ટથી કંઈક વધારે ૬૬ છાસઠ સાગરેપમ પર્યન્ત સમ્યફદષ્ટિ પણાથી રહે છે. જઘન્ય સમય વીતી ગયા પછી કર્મ પરિણામની વિચિત્રતાથી તે ફરીથી મિથ્યાષ્ટિ થઈ જાય છે. તથા જે ઉત્કૃષ્ટ સમય કહેવામાં આવેલ છે, તેનું તાત્પર્ય એવું છે કે1 . मेट 11 पछी क्षायो५मि सभ्यशन टि तय छ. 'मिच्छादिट्ठी तिविहे
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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