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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.९ सू.१३९ दशविध सं० स० जीवनिरूपणम् १३१९ 'उक्कोसेणं दोसागरोवमसहस्साई. संखेज्जवासमब्भहियाई उत्कर्षण द्वे सागरोपमसहस्र संख्येयवर्षाभ्यधिके । 'सेसाणं सवेसिं पढमसमइकाणं अंतरं जहन्नेणं दो खुड्डाइं भवग्गहणाई समऊणाई' शेषाणां सर्वेषां द्वि त्रि चतुष्पश्चेन्द्रियाणां प्रथमसमयकानां जघन्येनान्तरं समयोने द्वे क्षुल्लकभवग्रहणे, 'उक्कोसेणं वणस्सइकालो' उत्कर्षतो वनस्पतिकालः स च पूर्वोक्त एव 'अपढमसमइकाणं सेसाणं जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं' अप्रथम समयक द्वि त्रि चतुष्पश्चन्द्रियाणां सर्वेषां जघन्येन क्षुल्लकभवग्रहणं समयाधिकम् 'उक्कोसेणं वणसस्सइ कालो' उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, इति । पुनः उसी पर्याय को ग्रहण करने में अन्तर जघन्य से समयाधिक क्षुल्लक भव ग्रहण रूप है और उत्कृष्ट से अन्तर 'दो सागरोपम सहस्साई संखेज्जवासमन्भहियाई' संख्यात वर्ष अधिक दो हजार सागर का है 'सेसाणं सम्वेसिं पढमसमइकाण अंतरं जहन्नेणं दो खुड्डाई भवग्गहणाई समऊणाई' बाकी के दो इन्द्रियादि जो प्रथम समयवर्ती जीव हैं। उनका अन्तर जघन्य से एक समय हीन 'दो क्षुल्लक भव ग्रहण रूप है और उस्कृष्ट अन्तर 'वणस्सइकालो' वनस्पति काल प्रमाण है 'अपढम समइकाणं सेसाणं जहणणं खुड्डाग भवग्गणं समयाहियं उक्कोसेणं वणस्सइकालो' तथा अप्रथम समयवर्ती जो वीन्द्रियादिक जीव हैं उनका अन्तर जघन्य से एक समय अधिक क्षुद्रभव ग्रहणरूप है और उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल प्रमाण है इसका प्रमाण पूर्व में बतादिया गया है इनका अल्पपटुत्व.इस प्रकार से है-'पढम समयकाणं सम्वेसि सव्वत्थोवा पढमसमय पंधि ની પર્યાયને છેડીને ફરીથી એજ પર્યાયને ગ્રહણ કરવામાં અંતર જઘન્યથી सभयाधि४. क्षुदमा १ र ३५ छे. मते टथी मतिर 'दो सागरोषम सहरसाई संखेज्जवासमभहियाई' सभ्यात qष अधि४ मे सागरनु . 'सेसाणं सव्वेसिं पढमसमइयाणं अंतरं जहण्णेणं दो खुड्डाई भवग्गहणाई समऊणाई' मीना मे द्रिय बिगरे २ प्रथम समयवती १ छ तेनु मातर જઘન્યથી એક સમયહીન બે ક્ષુલ્લક ભવ ગ્રહણ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ અંતર 'वणस्सइ कालो' वनस्पति प्रमाणु छे. 'अपढमसमइयाणं सेसाणं जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं उक्कोसेणं वणस्सइकालो' तथा मप्रथम समय વતી જે દ્વીન્દ્રિય વિગેરે જીવે છે. તેમનું અંતર જઘન્યથી એક સમય અધિક ક્ષુદ્ર ભવ ગ્રહણ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ અંતર વનસ્પતિ કાલ પ્રમાણ છે તેનું પ્રમાણ પહેલાં બતાવવામાં આવી ગયેલ છે,
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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