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________________ १३१८ जीवाभिगमसूत्र भवग्गहणाई समऊणाई' द्वे क्षुल्लके भवग्रहणे समयोने जघन्येन ते क्षुल्लकभवग्रहणे द्वीन्द्रियादि भवग्रहणव्यवधानतः पुनरेकेन्द्रियेष्वेवोत्पद्यमानस्य ज्ञातव्ये तथाहिएकं प्रथमसमयोनमेकेन्द्रिय क्षुल्लकभवग्रहणमेव द्वितीयं संपूर्णमेव द्वीन्द्रियाधन्यतम क्षुल्लकभवग्रहणमिति । 'उक्कोसेणं वणस्सइकालो' उत्कर्पतो वनस्पतिकालः स च उक्तरूप एव । 'अपढमसमयएगिदियाणं अंतरं जहन्नेणं खुडागं भवग्गहणं समयाहियं' अप्रथमसमयैकेन्द्रियाणामन्तरं जघन्येन समयाधिकक्षुल्लकभवग्रहणम् अपग्गहणाई समउणाई उक्कोसेणं वणस्सइकालो' हे गौतम ! एक समय दो क्षुल्लक भव ग्रहणरूप अन्तर जघन्य से है और वनस्पति फाल प्रमाण रूप अन्तर उत्कृष्ट से है । द्वीन्द्रियादिक जीवों के भवों की ग्रहणता रूप व्यवधान को लेकर इस प्रथम समयवर्ती एकेन्द्रिय पर्याय को छोडकर पुन: इसी प्रथम समयवर्ती, एकेन्द्रिय पर्याय में “आने वाले जीव की अपेक्षा से यह जघन्य अन्तर कहा गया है इसमें यह जीव एक समय होन एकेन्द्रिय जीव के क्षुल्लक भव को ग्रहण करता है और वितीय भव में वह सम्पूर्ण दीन्द्रियादिक जीवों में से किसी एक के पूर्ण क्षुल्लक भव को ग्रहण करता है । तथा इसका उत्कृष्ट अन्तर जो वनस्पतिकाल प्रमाण कहा गया है वह इस के अनन्त उत्सर्पिणियों में और अनन्त अवसर्पिणियों में अवस्थान होने की अपेक्षा से कहा गया है क्योंकि इतने समय तक इन कालों में वर्तमान जीव अप्रथम समयवर्ती ही कहा जावेगा प्रथम समयवर्ती नहीं । 'अपढमसमय एगिदियाण-अंतरं जहन्नेण खुडूडागं भवग्गहणं समयाहियं' अप्रथम समयवर्ती एकेन्द्रिय जीवों की पर्याय को छोड़कर समऊणाई उक्कोसेणं वणस्सइकालो' के गौतम ! मे समय ४भ मे सुस ભવ ગ્રહણું રૂપ જઘન્યથી અંતર છે. બે ઈદ્રિય વિગેરે જીવોના ભવાની ગ્રહણ તારૂપ વ્યાઘાતને લઈને આ પ્રથમ સમયવતી એકેન્દ્રિય પર્યાયને છેડીને ફરીથી એજ પ્રથમ સમયવતી એકેન્દ્રિય પર્યાયમાં આવનારા ની અપેક્ષાથી આ જઘન્ય અંતર કહેવામાં આવેલ છે. આમાં એ જીવ એક સમય કમ એક ઈદિયવાળા શુભલક ભવને ગ્રહણ કરે છે. તથા તેનું ઉત્કૃષ્ટ અંતર જે વનસ્પતિ કાલ પ્રમાણુ કહેવામાં આવેલ છે. તે તેનું અનન્ત ઉત્સર્પિણીચામાં અને અનંત અવસર્પિણીમાં અવસ્થાન હોવાની અપેક્ષાથી કહેલ છે. કેમકે એટલા સમય પર્યત આ કાળમાં વર્તમાન જીવ અપ્રથમ સમયવતજ वारी प्रथम समयक्ती पारी नही. 'अपढमसमय एगिदियाणं अंतर जहण्णेणं खुडूडागं भवग्गहणाई समयाहिय' मप्रथम सभयता मेन्द्रिय
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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