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________________ प्रमेयधोतिका टीका प्रति० २ स्त्रीणां प्रथममल्पबहुत्वनिरूपणम् ४४७ तुल्लावा विसेसाहिया वा' कतराः कतराभ्योऽल्पावा बहुका वा तुल्या वा विशेषाधिका वेति प्रश्नः भगवानाह- 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! सव्वत्थोवाओ वेमाणियदेवित्थीओ' सर्वस्तोका वैमानिकदेवस्त्रियः अंगुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेय॑द् द्वितीयं वर्गमूलं तस्मिन् तृतीयेन वर्गमूलेन गुणने कृते यावान् प्रदेशराशिस्तावत् प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्यैकप्रादेशिकीपु श्रेणीपु यावन्तो नभ प्रदेशाः द्वात्रिंशत्तमभागहीनाः तावत्प्रमाणत्वात् प्रत्येकसौधर्मेशानदेवस्त्रीणामिति 'भवणवासिदेवित्थीओ असंखेज्जगुणाओ' वैमानिकदेवस्त्रीभ्यो भवनवासि देवस्त्रियोऽसंख्येयगुणा अधिका भवन्ति अंगुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेर्यत् प्रथम वर्गमूलं तस्मिन् द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशि स्तावाप्रमाणासु श्रेणीषु यावान् प्रदेशराशि त्रिशत्तमभागहीनस्तावज्योतिष्की और वैमानिकी देवस्त्रियों में "कयरा” कौन देवस्त्रियां "कयराहिंतो अप्पा वा बहुया वा तल्ला वा विसेसाहिया वा" किन देवस्त्रियां से कौन अल्प हैं ? कौन किनसे बहुत हैं ? कौन किन के तुल्य है । कौन किन से विशेषाधिक है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं - गोयमा सव्वत्थोवाओ वेमाणियदेवत्थीओ" सब देवस्त्रियो में सब से कम वैमानिकदेवस्त्रियां हैं इसका भाव ऐसा है अगुल मात्र प्रदेश राशि का जो द्वितीय वर्गमूल है उसे तृतीय वर्गमूल से गुणित करने पर जितनी प्रदेशराशि आती है उतने प्रमाण वाली धनी कृतलोक की ही एकदेशवाली श्रेणियों में जितने प्रदेश हो उन प्रदेशो को बत्तीसवें भाग हीन कर दो फिर जो प्रमाण बचे सो उतना प्रमाण सौधर्म और ईशान की देवस्त्रियों का है। "भवणवासिदेविस्थीओ असंखेज्जगुणाओ" वैमानिकदेवस्त्रियों की अपेक्षा भवनवासि देवस्त्रियां असख्यात गुणी अधिक है-तात्पर्य इसका यह है कि अंगुल मात्र क्षेत्र की प्रदेश राशि का जो प्रथम वर्गमूल है उसे द्वितीय वर्ग मूल से गुणित करने पर जितनो प्रदेशराशि हो पानव्यन्त२ वनावियोन्योति देवनी दियो, मन वैमानिकी देवनी क्यामा "कयरा" छविया "कयराहितो अप्पा वा. बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वाहवियाथी ४४ દેવી અલ્પ છે? કેનાથી કઈદેવિ વધારે છે? કે કેની બરાબર છે? કોણ કેનાથી વિશેષાघि छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतमस्वाभीन छ ?-गोयमा ! सव्वत्थोवाओ वेमाणियदेवत्थीमो" समीक्योभा सौथी साछी वैमानि देवनी क्या छ, पाना तु मे छ हैઆંગળમાત્ર પ્રદેશ રાશિને જે બીજે વર્ગમૂળ છે, તેને ત્રીજાવર્ગમૂળ થી ગુણવાથી જેટલી પ્રદેશરાશિ આવે છે, એટલા પ્રમાણુવાળી ઘનીકૃતલોકનીજ એકદેશવાળી શ્રેણીમાં જેટલા પ્રદેશશે હોય તે પ્રદેશ ને બત્રીસમાભાગથી ઓછા કરવાથી જે પ્રમાણ બચે તેટલું પ્રમાણ સૌધર્મ मन शान वानी क्यानु छे. 'भवणवासिदेवित्थीमो असंखेज्जगुणाओ" वैमानि દેવિ કરતા ભવનવાસિ દેવિ અસંખ્યાતગણી વધારે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કેઆંગળમાત્ર ક્ષેત્રની પ્રદેશ રાશિનુ જે પહેલું વર્ગમૂળ છે, તેને બીજા વર્ગમૂળથી ગુણવાથી
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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