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________________ २६० जीवाभिगमसूत्रे वगाहनया भवन्ति, कुक्षिदिहस्तप्रमाणा भवति । 'कुच्छिपुछत्तया वि' कुक्षिपृथकत्वका अपि केचन महोरगा भवन्तीति, 'धणुहंपि' केचन महोग्गा धनुपि शरीरावगाहनया भवन्तीति, हस्तचतुष्टयप्रमाणं धनुर्भवतीति । 'धणुहपुहनया वि' चनु पृथक् वका अपि केचन महोरगा । 'गारंवि' गव्यूतमपि केचन महोरगाः शरीरावगाहनया भवन्ति, द्विधनुः सहमप्रगणं गन्यूतम् । 'गाउयपुहत्तया वि' गव्यूतपृथक्त्वका अपि केचन महोरगा भवन्नीति, 'जोयण पि' योजनपि योजनप्रमाणा अपि केचन महोरगा शरीगवगाहनया भवन्ति, चत्वारि गव्यूतानि योजनं भवति । जोयणपुहत्तया वि' योजनपृथकत्वका अपि केचन महोग्गा भवन्तीति, 'जोयणमयंपि' योजनशतमपि केचन महोरगा शरीरावगाहनया भवन्ति । 'जोयणसयपुहत्तया वि' योजनशतपृथक्त्वका ऐसे होते हैं जो कुक्षिपृथक्त्व तक की अवगाहना वाले होते हैं । "धणुइंपि" कितनेक महोरग ऐसे होते है जो एक धनुप चार हस्त-के होते है । चार हाथ का एक धनुप होता हैं । “घणुद्दपुत्तिया वि" कितनेक महोरग ऐसे होते हैं जो दो धनुष से लेकर नौ घनुप तक की अवगाहना वाले होते है । कितनेक महोरग ऐसे होते है जो 'गार्ड वि' एक कोश की अवगाहना वाले होते है । दो हजार घनुप का एक कोश होता है कितनेक महोरग ऐसे होते है जो दो कोश की अवगाहना से लेकर नो कोश तक की अवगाहना वाले होते हैं । कितनेक महोरग ऐसे होते है जो एक योजन की अवगाहना वाले होते हैं । चार कोश का एक योजन होता है । कितनेक महोग्ग ऐसे भी होते हैं जो दो योजन की अवगाहना से लेकर नौ योजन तक की अवगाहना वाले होते हैं। कितने महोरग ऐसे भी होते है जो एकसो योजन की अवगाहनावाल होते है। एवं कितनेक महोरग ऐसे होते हैं जो दोसो योजनकी अवगाहना से लेकर नौ सो योजन હાથના હોય છે. કેટલાક મહોરગો એવા હોય છે, કે જેઓ કુટિર પૃથર્વ સુધીની અવगाउनावाणा होय छे. "घणुहंपि" हेटसाट भागे। मेवा होय छे ४-साना शरीरनी અવગાહના એક ધનુષ અર્થાત ચાર હાથની હોય છે. ચાર હાથનુ એક ધનુષ પ્રમાણહેલ छ. "धणुहपुहत्तिया वि" टला महारगे। मेवा अाय -रोमा में घनुपथी बन નવ ધનુષ સુધીની અવગાહનાવાળા હોય છે. કેટલાક મહરગો એવા હોય છે કે જેઓ "गाउंवि" मेस-मे गालनी भवगाहनावाडाय मेर२ घनु५ अभालना मे કેસ થાય છે. કેટલાક મહારગો એવા હોય છે કે-જેઓ બે કેસની અવગાહનાથી લઈને નવ કેસ સુધીની અવગાયનવાળા હોય છે. કેટલાક મહારગો એવા હોય છે કે જેઓ એક એજનની અવગાહનાવાળા હોય છે ચાર કેસને એક જન કહેવાય છે. કેટલાક મહારગે એવા પણ હોય છે કે-જેએ બે જનની અવગાહનથી લઈને નવજન
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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