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________________ जीवाभिगमसूत्रे टीका - 'से किं तं आउक्काइया' अथ के ते अष्कायिकाः जीवा इति प्रश्नः, भगवानाह - 'आउक्काइया दुविधा पन्नत्ता' अप्कायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः - कथिताः, द्वैविध्यमेव दर्शयति-‘तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा ' तद्यथा - 'सुहुम आउक्काइया य वायर आउक्काइया य' सूक्ष्माकायिकाश्च वादराकायिकाश्च तत्र सूक्ष्मा कायिकाः सूक्ष्मनामकर्मोदयात् इमे च सर्वलोकव्यापिनः, वादरात्कायिकाः वादरनामकर्मोदयात् वादराः वादराकायिका घनोदध्यादि भाविनः, 'मुहुम माउक्काइया दुविहा पन्नत्ता' सूक्ष्मा कायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तथथा- 'पज्जत्ता य अपज्जत्ता य' पर्याप्ताश्च अपर्याप्ताश्च 'तेसि णं भंते 2 कइ सरीरा पन्नत्ता' तेषां - सूक्ष्माकायिकानां खलु भदन्त ! कति कियत्सख्यकानि शरीराणि प्रज्ञप्तानि - १४० - पृथिवीकायिकों का वर्णन करके अव अष्कायिको का वर्णन किया जाता है'से किं तं आउक्काइया - इत्यादि ॥ सू० १३ ॥ टीकार्य - हे भदन्त 1 अप्कायिक जीव कितने प्रकारके होते है ? उत्तर में प्रभु कहते है - 'आउक्काया दुविहा पन्नत्ता' हे गौतम ? अष्कायिक जीव दो प्रकार के होते है, 'तं जहा' जैसे–'मुहुमआउक्काइया य वायरआउक्काइया य" सूक्ष्मअष्कायिक और बादर अप्कायिक, जिन अप्कायिक जीवो के सूक्ष्म नाम कर्म का उदय होता है वे सूक्ष्मअष्कायिक और जिन अकायिकजीवो के बादर नामकर्मका उदय होता है वे बादर अकायिक जीव कहलाते है । सुक्ष्मअष्कायिकजीव सर्वलोक व्यापी होते हैं और बादर अकायिकजीव घनोदधि आदिको में रहते हैं । इनमें 'मुहुम आउक्काइया दुविधा पन्नत्ता' सूक्ष्म अष्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये है 'तं जहा' जैसे - सूक्ष्म पर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्त ' ते सिणं भंते ! कइ सरीरा पन्नत्ता' हे भदन्त ' सूक्ष्म अष्कायिक जीवो के कितने शरीर कहे गये પૃથ્વીકાયિકાનુ ́ વર્ણન કરીને હવે અકાયિક જીવનુ વર્ણન કરવામાં આવે છે—હૈ किं तं उक्काइया" इत्यादि. ટીકાથ—ગૌતમ સ્વામી પ્રભુને પૂછે છે કે—હે ભગવન્ અસૂકાયિક જીવ કેટલા પ્રકા रना होय छे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभु गौतम स्वाभीने हे छे – “आउक्काइया दुबिहा पन्नत्ता" हे गौतम मावि मे प्रझरना होय छे. 'तं जहा " ते भा प्रभा छे. - "सुहुम आउक्काइया य वायर आउक्काइया य" सूक्ष्म माथि भने बाहर यूકાયિક—એટલે કે જે અપ્રકાયિક જીવેાના સૂક્ષ્મ નામ કર્મના ઉદય હાય છે તે સૂક્ષ્મ અાયિકા છે અને જે અપૂકાયિક જીવૅાના ખાદર નામકર્મના ઉદય હાય છે, તેઓ ખાદર અકાયિક જીવ કહેવાય છે. સૂક્ષ્મ અપૃકાયિક જીવા સર્વ લેાકમાં વ્યાપેલા હોય છે. અને णाहर मधूायि! लवो धनविधि विगेरेभा रहे है तमोभां "सुहुम आउवकाइया दुविहा पन्नत्ता" सूक्ष्म माथि छत्र में प्रारना भी खाया है. "तं जहा" प्रेम
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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