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________________ प्र. १ आहारद्वारनिरूपणम् १०९ रन्ति, परम्पराव गाढानि आहारन्ति अयमर्थः-येषु आत्मप्रदेशेषु यानि द्रव्याणि अव्यवधानेनावगाढानि-स्थितानि तरात्मप्रदेश स्तान्येव द्रव्याणि आहरन्ति, अथवा-परम्परावगाढानि-एक द्वित्राद्यात्मप्रदेशै र्व्यवहितान्यपि द्रव्याणि आहरन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम 'अणंतरोगाढाई आहारेंति नो परंपरोगाढाई आहारेति' अनन्तरावगाढानि आहरन्ति नो-नतु परम्परावगाढानि आहरन्तीति । 'ताई भंते ! कि अण्इ आहारेंति वायराइं आहारेति' यानि भदन्त ! अनन्तरावगाढानि आहरन्ति तानि भदन्त ! अनन्तप्रादेशिकानि द्रव्याणि किम् अनि-स्तोकानि आहरन्ति अथवाबादराणि-प्रमूतप्रदेशोपचितानि आहरन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' मंते ! अणंतरोगाढाइं आहारेंति परंपरोगाढाई आहारेंति" हे मदन्त ! सूक्ष्मपृथिवीकायिकजीव जिन अवगाढ हुए द्रव्यो का आहार करते है वे द्रव्य अनन्तरावगाढ होकर उनके आहार के विषय बनते है ? या परम्परावगाढ होकर उनके आहार के विषय वनते है ? तात्पर्य ऐसा है कि जिन आत्मप्रदेशो में जो आहरणीय द्रव्य अव्यवधान रूप से स्थित होते है उन्हों आत्मप्रदेशों से व्यवहित होते है उनका भी जो आहरण करना है वह परंपरावगाढ आहरण है। इस प्रकार के इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु गौतम से कहते है-गोयमा ! अणंतरोगाढाई आहरेति नो परंपरोगाढाई आहरेंति' हे गौतम ! जो द्रव्य अनंतरावगाढ होते है उन्हे ही वे आहार रूप से ग्रहण करते है परम्परावगाद द्रव्यो को आहाररूप से वे ग्रहण नहीं करते है । "ताई भंते कि अशइंपि आहारेंति नायराई आहारेंति' हे भदन्त ! जिन अनन्तरावगाढ द्रव्यों का वे आहार करते है वे अनन्त प्रदेशिक द्रव्य क्या अणु थोडे रूप में आहार रूप से उनके द्वारा गृहीत होते हैं ? या प्रभूत प्रदेशोपचित द्रव्य आहार रूप से गृहीत होते हैं ? भीना प्रश्न-"ताई किं भंते ! अणंतरोगाढाइ आहारेंति, परंपरोगाढाई आहारैति ?" है ભગવાન ! સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક છે જે અવગાઢ થયેલાં દ્રવ્યનો આહાર કરે છે, તે શું અનન્તરાવગાઢ દ્રવ્યોને આહાર કરે છે ? કે પરમ્પરાવગાઢ દ્રવ્યનો આહાર કરે છે ? અનન્તરાર્વગાઢ આહિરણનો અર્થ નીચે પ્રમાણે છે-જે આત્મપ્રદેશમાં જે આહરણીય દ્રવ્ય (આહાર કરવા ગ્ય પ્રવ્ય) અધ્યવધાન રૂપે રહેલું હોય છે, એજ આમપ્રદેશો દ્વારા એજ દ્રવ્યનું જે આ હરણ (ગ્રહણ) કરાય છે, તેનું નામ અનન્તરાવગાઢ હરણું છે અને જે એક બે આદિ આત્મપ્રદેશે વડે વ્યવહિત હોય છે, તેમનુ જે આહરણ કરાય છે, તેનું નામ ५२ ५२॥ माडर छ, मा प्रश्न उत्तर भांपता महावीर प्रभु ४ छे -"गोयमा ! अणंतरोगाढाइ आहरेंति, नो परंपरोगाढाई आहरेति" 3 गौतम ! २ द्रव्या मनन्तવગાઢ હોય છે, તેમને જ તેઓ આહાર રૂપે ગ્રહણ કરે છે પરંપરાગઢ દ્રવ્યને ગ્રહણ કરતા નંથી गौतम स्वामी प्रश्न-"ताई भते कि अणूई आहारैति, वायराई आहारति ?" संगન જે અનન્તરાવગઢ દ્રાને તેઓ આહાર કરે છે, તે અનન્ત પ્રદેશિક દ્રવ્ય શું
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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