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________________ ६६२ औपति - अणंतं अणुत्तरं निवाघायं निरावरणं कसिणं पडिपुण्णं केवलवरनाणदंसणं उप्पादेंति, तओ पच्छा सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति ।। सू० ६७॥ मूलम्---एगच्चा पुण एगे भयंतारो पुवकम्मावसेसेणं 'निवाधाय ' निर्व्याघात सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टविषयेषु अप्रतिहत, 'निरावरणं निरावरण-कर्मावरणरहित 'कसिण' कृत्स्न सफल, 'पडिपुण्णं ' प्रतिपूर्ण-मपूर्ण, 'केवलवरनाणदसण' केलपरज्ञानदर्शनम् 'उप्पादेति' उत्पादयन्ति, 'तओ पच्छा सिभिल हिति' तत पश्चात् सेत्स्यन्ति, 'जाव अत' यावत् अन्त-सर्वदु खानामन्त 'करेहिंति' करिष्यन्ति ॥ सू० ६७॥ 'एगचा' इत्यादि । 'पगचा' एकाऽचा -एका असाधारणगुणवात् अद्वितीयाकेवलबरनाणदसण उप्पादेति) चरम उच्छ्वास-नि श्वासों में अन्तरहित, अनुपम, निाधान--सूक्ष्म, व्यवहित एव विप्रकृष्ट विषय को हस्तामलकवत् जानने के लिये समर्थ, निरावरण-कमावरणरहित, कृत्स्न-सफल, एवं प्रतिपूर्ण-सपूर्ण केवलजान एव केवलदर्शन की उत्पत्ति से विशिष्ट हो जाते है । (तओ पच्छा सिज्झिहिति जाव अतं करेहिति) इसके पवाद वे सिद्ध हो जाते हैं और उस अवस्था में उनके समस्त दुखों का एव उनके कारणभूत कर्मों का सर्वथा अभार हो जाता है । सू० ६७ ॥ 'एगचा पुण' इयादि। इन अनगार भगवन्तों के बीच (एगे) कितनेक ऐसे भी अनगार भगवान होते - - - - - घाय निरागरण कसिण पडिपुण्ण केलवरनाणदसणं उप्पादेति) यम छ्वासનિ શ્વાસોમા અતરહિત, અનુપમ, નિર્વ્યાઘાત–સૂક્ષમ, વ્યવહિત તેમજ વિપ્ર કૃષ્ટ વિષયને હસ્તામલકવત્ જાણવા માટે સમર્થ, નિરાવરણ-કર્માવરણરહિત, કસ્મ-સકળ, તેમજ પરિપૂર્ણ—સ પૂર્ણ કે વળજ્ઞાન તેમજ કેવળદનની ઉત્પત્તિથી विशिट 25 य छ (तओ पच्छा सिज्झिहिति जाव अत करेहिति) त्यार પછી તેઓ સિદ્ધ થઈ જાય છે, અને તે અવસ્થામાં તેમના સમસ્ત દુખે તેમજ તેમના કારણભૂત કર્મોનો સર્વથા અભાવ થઈ જાય છે (જૂ ૬૭) 'एगच्चा पुण' इत्यादि આ અનુગાર ભગવત્તાની વચમાં (m) કેટલાક એવા પણ અનુગાર
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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