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________________ पीयूषवर्षिणी-टीका ख ५६ भगवतो धर्मदेशना ४४७ मणारियाणं अप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमइ। तंजहा-- अस्थि लोए, अस्थि अलोए, एवं जीवा अजीवा बंधे मोक्खे पुण्णे सर्वेषाम् आर्यागामनार्यागाम्, 'अप्पणो' आमन = स्वस्य, 'सभासाए' स्वभाषाया , 'परिपामेणं परिणमइ' परिणामेन परिणमति, यादृश धर्म कथयति त दर्शयति-'त जहा तद्यथा'अस्थि लोए' अस्ति लोक-टत्यादि 'सफले कलाणपावए' इत्यन्तो ग्रन्थो धर्मस्वरूपप्रदर्शक । लोक --पञ्चास्तिकायमय । 'अस्थि अलोए' अस्त्यलोक -अलोक =केवलाफाशरूप --एतयोरस्तित्वाभिधान शून्यवादनिरासार्थम् । 'एर जीवा' "अस्थि जीवा" सन्ति जीना --जीया =उपयोगलक्षगा । इद नास्तिकमतनिराकरणार्थम्। 'अस्ति अजीवा' सन्ति अगीवा =जटलक्षणा , एतत्कयनमद्वैतवादनिराकरणार्थम् । 'अत्थि वधे' अस्ति बन्ध -- समस्त आर्य और अनार्यों को श्रुतचारिकरूप धर्म का उपदेश दिया वह प्रभु की भाषा, उन समस्त आर्य-अनार्यों की अपनी २ भाषा मे परिणमित होने के स्वभाववाली थी। भगनान् ने जिस तरह धर्म का उपदेश दिया सूत्रकार उसे यहा प्रकट करते हैं---- , (अत्थि लोए) पच-अस्तिकायमय यह लोक अस्ति-स्वरूप है। (अत्थि अलोए) केल आकागस्वरूप अलोक भी अस्तिस्वरूप है। लोक और अलोक मे अस्तित्वस्वरूपता का कथन बौद्धों द्वारा समत शून्यवाद के निराकरण करने के लिये जानना चाहिये । (एवं जीवा) इसी तरह उपयोगलक्षणवाला जीव भी अस्तित्वविशिष्ट है। जीव में अस्तित्वविधान नास्तिकमत के परिहारनिमित्त जानना चाहिये । (अजोगा) जिसका लक्षण जड हे ऐसा अजीव पदार्थ भी भावस्वभावविशिष्ट है। अजीव पदार्य की सत्ता का वह निरूपग अद्वैतवाद के निराकरण के लिये जानना चाहिये । (वये) जाव और कर्मोंका र.बध ભાષા દ્વારા તે સમસ્ત આર્ય અને અનાર્ય લોકોને શ્રતચારિત્રરૂપ ધર્મને ઉપદેશ આપે, પ્રભુની તે ભાષા તે સમસ્ત આર્યો અનાર્યોની પિતપોતાની ભાષામાં પરિણામ પામવાવાળા (સમજાય તેવા)–સ્વભાવવાળી હતી ભગવાને २वी रीत धना पहेश दाधीत मडी सूत्रा२ अडट ४२ छे-(अत्थि लोए) ५यमस्तियमय PAL | मस्ति-१३५ छ (अत्थि अलोए) उपस माशસ્વરૂપ અલેક પણ અસ્તિસ્વરૂપ છે લોક અને અલેકમાં અતિસ્વરૂપતાનું કથન બૌદ્ધો દ્વારા સમત શૂન્યવાદનું નિરાકરણ કરવા માટે જાણવું જોઈએ (एव जीवा) ॥ शत 6पयोगसमकामा ७५ पण मस्तित्व-विशिष्ट छ જીવમાં અસ્તિત્વનું વિધાન નાસ્તિકમતના પરિહારનિમિત્તે જાણવું જોઈએ (अजीवा) रेनु सक्षY छ तपा ५७१ पार्थ ५ खा-स्वलाव-विशिष्ट છે અજીવ પદાર્થની સત્તાનું આ નિરૂપણ અતવાદના નિરાકરણ (પરિહાર)
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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