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________________ - औपपातिको रिसवर-कंचुइज्ज-महत्तर-चंद-परिस्खित्ताओअंतेउराओणिग्गच्छ न्ति,णिग्गच्छित्ता जेणेव पाडियकजाणाहं तेणेव उवागच्छंति,उवागच्छित्ता पाडियकपाडियकाई जत्ताभिमुहाड जुत्ताइ जाणार्ड दुरुचेष्टितम् , चितित मनोगत, प्रार्थितम् अभिलपित्त तेषा विज्ञामि , 'सदेस-णेवस्य-ग हिय-वेसाहि' स्वदेश-नेपथ्य-गृहीत--येषामि-रदेशस्य यानि नेपथ्यानि-वस्त्रभूषण धारणरीतय , तैर्गृहोता घेपा यामि तारतथा ताभि , 'चेडिया-चकपाल-चरिसवर-कचुइज-महत्तर-वद-परिक्खित्ताओ' चेटिका-चक्रनाल-चर्पवर-कञ्चुकीय-महत्तर-वृद्धपरिक्षिप्ता -चेटिकाना दासीना चकवाल मण्डलम्, वर्परा:-क्लीना , कन्चुकीया =अन्त • पुरवहि प्रदेशरक्षका , तदन्ये ये महत्तरा प्रामाणिका अन्त पुररक्षका , तेषा यद वृन्द तेन परिक्षिप्ता =परिवेष्टिता यास्तास्तथा सुभद्राप्रमुसा हेन्योराध्य 'अतेउराओ णिगाच्छति अन्त पुरात्-स्त्रीगृहानिर्गच्छन्ति, 'णिग्गन्धित्ता' निर्गय, 'जेणेव पाडियकजाणाइ' यत्रैव प्रयेकयानानि पृथक् २ यानानि सन्ति, तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागय 'पाडियक-पाडि: प्रार्थित को अर्थात्-अभिलपित को जानने मे विन थीं, (सदेस-णेवत्थ-ग्गहिय-वेसाहि) अपने २ देश की रीति के अनुसार वेपभूपा धारण की हुई थीं, ऐसी इन विदेशी दासिया से, तथा-(पेडिया-चकवाल-वरिसवर-कचुइज्ज-महत्तर-चंद-परिक्खित्ताओ) विदेशी दासियों से मिन्न दासियों के समूह से, वर्षपरों से-नपुसकों से, कचुकियों से तथा और भी अन्य प्रामाणिक अन्त पुर रक्षकों से परिक्षिप्त-घिरी हई होकर (अतेउराओ णिग्गच्छंति) अत पुर से निकली, (णिग्गच्छित्ता) निकलकर (जेणेव पाडियकजाणाइ) जहा अपने २ योग्य अलग २,यान रखे हुए थे, (तेणेव उवागच्छति) यहा पर पहुँची, (उवागच्छित्ता पाडियकपाडियकाइ जत्ताभिमुहाई जुत्ताई जाणाइ दुरूहति) पहुँच कर उन पृथक र प्रार्थितने मेरो मलिसापाने ती सेवामा निपुर उती, (सदेसणेवत्थगहियवेसाहि) या पातपातानाशनी शत प्रमाणे वेष धारण ४२ हेत! सेवा ॥ विशी हासीसाथी, तथा (चेडिया-चक्कपाल-वरिसवर-कचुइज्ज-महतर-बद-परिखित्ताओ) विदेशी हासीमाथी ही सीमाना समूहथी, तथा વર્ષવર-નપુસકેથી, ચુકીએથી, તથા બીજા પણ પ્રામાણિક અ ત પુરક્ષ थी परिक्षिस-पीटामेली सनीन (अतेउराओ णिग्गच्छति) मत पुस्थी नीजी, (णिम्गच्छित्ता) नाजीने (जणेष पाडियस्कजाणाई) या पातपाताने योग्य get jा यान (481) राजपामा माल्या ता (तेणेव उवागच्छति) त्या पाडायो (उवागच्छित्ता पाडियक्कपाडियस्काई जत्ताभिमुहाइ जुसाइ जाणाइ दुरू
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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