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________________ १ पीयूषपणी-टीका सू ३० ध्यानभेदवर्णनम २७१ ४- 'सुवज्झाणे' युग्भ्यानम् शुचोक क्रमयति-अपनयतोति शुक्र- भवभयकारण, • शुक्र च तद् ध्यान शुध्यानम् । तथा चोक्तम् "यस्येन्द्रियाणि विषयेषु पराङ्मुखानि, संकल्प कल्पनविकल्पविकारो । योगे स च निभिरहो नितान्तगमा, ध्यानोत्तम Trafia न्ति ॥ ३ ॥ इति । एव सभी प्राणिया पर दया रखना, इस प्रकार की आत्मा की शुभ प्रवृत्ति को विज्ञ जन " 'धर्मध्यान ' कहते है ॥३॥ " शुचं शोक क्रमयतीति शुरु " शोक को जो नष्ट करे यह 'शु है । "शुक्ल च तद्व्यानं च शुक्ल यान" शुक्ररूप जो ध्यान वह शुक्रभ्यान ह । अर्थात् जो भवक्षय का कारण होता है अथवा जिससे शोक का अपनयन होता है, वह शुक्ध्यान है। कहा भी हैयस्येन्द्रियाणि विषयेषु परामुखानि, सकल्पकल्पन विकल्पविकारदीपैः । योगैः स च त्रिभिरहो निभृतान्तरात्मा, ध्यानोत्तम प्रवरशुक्लमिद वदन्ति ॥ जिनकी इन्द्रियावृत्तियों से रहित है, जो मप-विकल्प-जनित विकार-टोपों से वर्जित है, कायिक, वाचिक, मानसिक तीनों योगों को वा कर लेने के कारण जिनकी आत्मा निश्चल है, ऐसे महामाओं की प्रस्त परिणति को विज्ञ जन 'शुक्रध्यान' कहते है ॥ ४ ॥ તેનુ ચિતન કરવુ, પાંચેય ધૃદ્નિને નિગ્રહ કરવા, તેમ જ બધા પ્રાણિએ ઉપર 46 દયા રાખવી, એ પ્રકારની આત્માની શુભ પ્રવૃત્તિને વિદ્વાને ધર્મધ્યાન' કહે છે शु-शोकं क्लमयतीति शुक्लं " शेोउनो ? नाश करे ते 'शुस ' छे" 'शुक्ल च तद् ध्यान घ-शुक्लध्यानं " शुम्वइप के ध्यान ते शुध्यान छे, અર્થાત્ જે ભવક્ષયનુ કારણ હોય છે અથવા જેનાથી શાકનુ અપનયન થાય છે તે શુક્લધ્યાન છે કહ્યુ પણ છે यस्येन्द्रियाणि विषयेषु पराङ्मुखानि संकल्पकल्पनविकल्पविकारदोयै । योगे स च त्रिभिरहो निभृतान्तरात्मा, ध्यानोत्तम प्रारम्लमिदं वदन्ति ||१|| જેની ઇન્દ્રિય વિષયપ્રવૃત્તિથી રહિત છે, જે સવિકલ્પ નિત विधारोषोथी पति छे, भायिक, वाचिक, मानसिक, त्रय योगोने शरी લેવાના કાગ્યે જેને આત્મા નિશ્ચલ છે, એવા મહાત્માએની પ્રશસ્ત પરિણ ત્તિને વિદ્વાના શુક્લધ્યાન' કહે છે (૧)
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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