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________________ १८२ । औपालियो वणभूया परवाइपमहणा आयारधरा चोदसपुवी दुवालसंगिणो तथैव तेऽपि मुनिवरा सम्यग्ज्ञानादिग्नपूर्णा सति । पुनस्ते कीदगा । इयाह-'कषियारणभूया' कृत्रिकाऽऽपणभूता =कना-पर्गमर्यपातालगमीना त्रिक, कुविक, तास्यात् तदव्यपदेश इति कृत्वा तत्र स्थित वस्त्वपि कुरिकमुच्यते,कुनिकस्य आपण कुनिकापण । देवाधिष्ठितत्वेन स्वर्गमर्त्यपाताललोकत्रयसमविवस्तुसम्पादकहा इत्यर्थ, तरता-समाहितार्थ सम्पादनलब्धियुक्तत्वेन तत्तुल्या इति भाव. । 'परवाइपमरणा' परवादिप्रमर्दना -परवादिना - शाक्यादीना मतनिराकरणेन विजेतार इत्यर्थ । 'आयारधरा' आचारपरा -आचाराणसूत्रस्यधारका यावद्विपाकसूत्रधरा , 'चोदसपुत्री' चतुर्दशविण चतुर्दश पूर्वाणि विचन्ते येषां ते चतुर्दशपूविंग पड्गुणहानिवृद्रिरूपस्थानमस्थिता परस्पर भवन्ति न्यूनाधिक्येन, तथाहि-यः कश्चित् सकलामिलाप्यवस्तुवेदितया चतुर्दशपूर्वी स उत्कृष्ट, ततोऽन्ये सूनार्थतदुभयरूपतारतम्याचतुर्दशपूर्वधरा ।'दुवालसगिणो द्वादशागिन द्वादशानि-अङ्गानि आचारानादीनि सन्ति है उसी प्रकार ये साधुजन भी सम्यग्दर्शन एव सम्यग्जान आदि विविध गुणरूप रत्नों से भरपूर थे। (कुत्तियावणभूया) ये कुत्रिकापण तुन्य थे। जिस आपण ( दूकान ) में स्वर्ग मयं, पाताल-तीनों लोक की वस्तुएँ रहती हैं, उसको 'कुत्रिका पण' कहते है। उस कुत्रिकापण से सभी अभिलषित वस्तुएँ मिलती है। उसी प्रकार ये अभिलपित तानों लोक के पदार्थों के सम्पादन करने को लब्धियों से युक्त थे। अत एव कुत्रिकापण-तुल्य थे। (परवाइपमदणा) परवादियों के मत को निराकरण करने से ये उनके विजेता थे। (आयारधरा) आचाराग सूत्र से लेकर विपाकसूत्रतक के आगमों के ये धारक थे। (योदसपनी) चौढहपूों के ये पाठी , थे। इस प्रकार ये सब के सब (दुवालसगिणो) द्वादशाग के वेत्ता थे। (समत्तકિમતી રત્નથી ભરપૂર હોય છે તેમ એ સાધુજને પણ સમ્યગ્દશન તેમજ सभ्यशान मा विविध शुष३५ २त्नाथी - सरपूर ता, (कुत्तियावणभूया)-- તેઓ કુત્રિકા૫ણ જેવા હતા જે આપણ (દૂકાન)માં રવર્ગ મત્યું અને પાતાળત્રણે લોકોની વસ્તુઓ રહેતી હોય તેને “કુત્રિકા પણ કહે છે તે કુત્રિકાપણમા બધી ઈચ્છિત વસ્તુઓ મળે છે, તેવી રીતે તેઓ પણ ત્રણે લોકના ઈચ્છિત, પદાર્થો મેળવવાની લબ્ધિઓવાળા હતા એથી તેઓ કુત્રિકા૫ણ જેવા હતા (आयारधरा) मायारागसूत्रथी बने विपासूत्र सुधीना मागमाना त्या पार४ डता (चोहसपुव्वी) यौह पूर्वाना मानना। तो मे घारे मे तमाम तमाम (दुयालसगिणो) MAITन सात sal (समत्तगणिपिडगधरा) समस्त
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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