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________________ १८१४ पीयूषषपिणी-टीका स २६ भगवदन्तेवासिघर्णनम् मत्तमातंगा अच्छिदपसिणवागरणा रयणकरंडगसमाणा कुत्तिया सिद्धान्तप्रवीणतया न किञ्चिदपिदित तेपा भवताति भार । पुनस्ते कीदृशा ? इत्यनकै विशेषणै कथयति-'आयावायं जमइत्ता' आमगादान् यमयित्वा-स्वसिद्धान्तान् पुन पुनरभ्यस्य-अतिपरिचितान् विधाय, 'नलवणमिर मत्तमातगा' नलवनमिव मत्तमातगा-क्रीडाथ पुन पुन प्रवेशेन कमलपन यथा मदोन्मत्ता गजेन्द्रा अतिपरिचित कुर्वन्ति तथैव ते पुन पुनरभ्यासेन निजसिद्धान्त परिचित कृतवन्तोऽतस्ते तत्तुल्या इत्यर्थ । 'अच्छिद-पसिण-चागरणा' अच्छिद्र-प्रश्न-व्याकरणा-अच्छिद्रा-निरन्तरा --धारावाहिकरूपा प्रश्ना, निरन्तराण्युत्तराणि येपु तादृशानि व्याकग्णानि-विस्तारयुक्तव्याख्यानानि येपा ते-अच्छिद्रप्रश्नन्याकरणा-पुन पुन प्रश्नोत्तरसमुचितत्र्याप्यविनिपुणा , अत एव- रयण-करडग-समाणा' रन-करण्डक-समाना रत्नाना-मगिमागिक्यादीना करण्डको मञ्जूषा तस्य समानास्तत्तल्या , करण्डको यथा बहुविधरत्नपूर्णो भवति दृष्टि से बाहर हो। और भी ये कैसे थे ? सो इस बात को आगे के विशेषणों द्वारा सूत्रकार कहते है-(आयावाय जमइत्ता नलवणमिव मत्तमायगा) जिस प्रकार मदोन्मत्त गजराज सरोवर आदि में क्रीडा करने के लिये पुन पुन प्रवेश कर कमलवन से पूर्ण परिचित हो जाते है उसी प्रकार ये भी ज्ञानरूपी सरोवर में क्रीडा करने के लिये पुन २ प्रवेश कर स्वपर-सिद्धान्तरूपी कमलपन से पूर्ण परिचित थे। (अच्छिद्द-पसिण-चागरणा) जव ये प्रवचन करते थे तब उसमें श्रोताजन धारावाहिकरूप से प्रश्न किया करते थे, उनका उत्तर भी ये उसी ढग से देते थे । (रयण-करडक-समाणा) इसलिये ये ऐसे ज्ञात होते थे कि मानो रत्नकरण्टक है, जैसे रत्नों का करण्डक अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम अमूल्य रत्नों से भरपूर होता सेता त पात माजना विशेषाद्वारा सूत्र४२ ४९ छ-( आयावाय जमइत्ता नलवणमिव मत्तमायगा) २वी शत महोन्मत्त ४२।०१ सरा१२ माहिमा ક્રીડા કરવા માટે વાર વાર પ્રવેશ કરીને કમલેના વનથી પૂર્ણ પરિચિત થઈ જાય છે, તેવી જ રીતે તેઓ પણ જ્ઞાનરૂપી સરોવરમાં કીડા કરવાના કારણે વાર વાર પ્રવેશ કરીને વષર-સિદ્ધાતરૂપી કમલવનથી પૂર્ણ પરિચિત હતા (अच्छिद-पसिण-वागरणा) न्यारे तसा अवयन ४२॥ ता त्यारे तमा श्रोताજને એકધારી રીતે પ્રશ્ન કર્યા કરતા હતા અને તેના ઉત્તર પણ તેઓ તેવી જ રીતે मापता तो (रयण करडग-समाणा) मेथी तसा सवा सागता न રત્નને કરડિઓ હોય જેમ રને ફરડિએ અનેક પ્રકારના ઉચામાં ઉચા
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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