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________________ मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, सुधर्मस्वामिनश्वम्पायां समवसरणम् भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगेरणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्त अंगस्स उवासगदसाणं अयमट्टे पण्णत्ते, अट्टमस्स णं भंते! अंगस्स अंतगडदसाणं समणेणं जाव सम्पत्तेर्ण के अट्ठे पण्णत्ते ? ॥ सू० २ ॥ ॥ टीका ॥ 'तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये ' अन्जसुहम्मे थेरे' आर्यसुधर्मा स्थविरःसु - शोभनो धर्मः = ज्ञानचारित्रलक्षणः स्याद्वादलक्षणः स्वभावलक्षणो वा यस्यासौ सुधर्मा, आर्यश्वासौ सुधर्मा च, आर्यसुधर्माअर्यते=भविभिर्गम्यते : कल्याणप्राप्तये यः स आर्यः १, अथवा हेयधर्माद् उस काल उस समय में स्थविर आर्य सुधर्मा स्वामी पाँच सौ अनगारों के साथ तीर्थकरपरम्परा से विचरते हुए, ग्रामानुग्राम विहार करते हुए, उस चम्पानगरी के पूर्णभद्र नामक उद्यान में पधारे। यहाँ मूल में 'आर्य सुधर्मा स्थविर' ये तीन पद आये हैं । इनमें - 'सुधर्मा' शब्द का ऐसा अर्थ है-सु-शोभन अर्थात् अच्छा धर्म - श्रुतचारित्रलक्षण, स्याद्वादलक्षण और स्वभावलक्षण धर्मवाले सुधर्मा कहलाते हैं । आर्य शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है- भव्यलोक अपने कल्याणप्राप्ति के लिए जिनकी सेवा करते हैं उनको आर्य कहते हैं । १ । अथवा – हेय - त्याज्यं धर्म से जो अलग रहते हैं, वे आये कहलाते हैं । २ । તે કાલ તે સમયમાં સ્થવિર મા રુષોઁવામી પાંચસે અનગારાની સાથે તીર્થંકરપર પરાથી વિચરતા ગામે-ગામ સચમયાત્રાનિર્વાહપૂર્વક વિહાર કરતા કરતા તે ચમ્પાનગરીના પૂર્ણભદ્ર નામના ઉદ્યાનમાં પધાર્યાં. अडी भूभां 'आर्य सुधर्मा स्थविर' मा त्र यह। आवेसां छे. तेभां આયે શબ્દની વ્યુત્પત્તિ આ પ્રકારે છે. ભવ્યલાક પોતાનાં કલ્યાણુપ્રાપ્તિને માટે बेनी सेवा ४२ छेतेने आर्य छे अथवा डेय ( त्याग ४२वा योग्य ) धर्मथा ने
SR No.009332
Book TitleAntkruddashanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages392
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size24 MB
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