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________________ अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ २ मृ ९९-१०२ हस्तिरूपदेववर्णनम् ३७३ मूलम्-तए ण से देवे पिसायरूवे कामदेव समणोवासयं अभीयं जाव विहरमाण पासइ,पासित्ता आसुरुते४ तिवलिय भिउडि निडाले साहहु कामदेव समणोवासयं नीलुप्पल जाव असिणी खडाखडि करेइ ॥९९॥ तए णं से कामदेवे समणोवासए त उज्जलं जाव दुरहियासंवेयण सम्म सहइ जाव अहियासेइ ॥१०॥ तए णं से देवे पिसायरूबे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव विहरमाण पासइ पासित्ता जाहे नो संचाएइ कामदेव समणोवासय निग्गथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे संते तते परितते सणियं२ पच्चोसका, पच्चोसक्त्तिा पोसहसालाओ पडिणिस्खमइ, पडिणिक्खमित्ता दिव्व पिसायरूव विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एग मह दिव हत्थिरूव विउव्वइ ॥१०१॥ सत्तगपइठियं सम्म सठिय सुजायं, पुरओ उदग्ग, पिट्टओ वराह,अयाकुच्छि,अलवकुच्छि,पलंवलंबोदराधरकर, अन्भु छाया तत खलुस देवः पिशाचरूप.कामदेव श्रमणोपासकमभीत यावद्विहरमाण पश्यति, दृष्ट्वा, आशुरक्त ४ त्रिवलिका भृकुटि सहत्य कामदेव श्रमणोपासक नीलोत्पल-यावदसिका खण्डाग्वण्डि रोति ॥ ९९ ॥ तत. खलु स कामदेव' श्रमणोपासकस्तामुज्ज्वला दुरध्यासा वेदना सम्यक् सहते यावदध्यास्ते ॥१०॥ छाया-ततः खलु स देव. पिशाचरूपः कामदेव श्रमणोपासकमभीत यावद्विहरमाण पश्यति, दृष्ट्वा यदा नो शक्नोति कामदेव श्रमणोपासक नन्थ्यात्मवचनाचालयितु वा क्षोभयितु वा विपरिणमयितु वा तदा शान्तस्तान्त परितान्तः शनैः शनै मत्यववष्कते, प्रत्यवप्वष्क्य पोपधशालातः प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य दिव्य पिशाचरूप विमजहाति, विमहायक महद दिव्य इस्तिरूप विकुरुते ॥ १०१॥ सप्ताङ्गमतिष्ठित सम्यक्सस्थित सुजात पुरत उदग्र, पृष्टतो वराहम्, अजाकृक्षि,
SR No.009331
Book TitleUpasakdashangasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size18 MB
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