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________________ तपर्णनम् १३५. भोगारधर्मामृतथपिणी टी० १०.६ धर्मरुच्यनमारचरितवर्णनम् आस्वादयति, नस्वाय तत् क्षार कटुकमस्सायमभोज्य विपभूत ज्ञाखा एवमवादीतू-- धिंगस्तु मा नागश्रियमरन्यामपुण्या दुर्भगा 'दुभासत्तार' दुर्भगसत्वा दुर्भग-निष्फल सत्त्व-बल यस्याः सा वा व्यपरिषमामिन्यर्थः 'दृभगणिपोलिए ' दुर्भगनिम्ब गुलिका निम्नफलिका, तद्वद् दुर्भगा ताजनैरनादरणीयामित्यर्थः, जन द्वितीयार्थे पष्ठी माकृतत्वात् , 'जीए' यया खलु मया शारदिक बहुसभारद्रव्यसभृत स्नेहार(ज्वरसडित्ता एग बिद्धय करयलसि आसाएट) जब वह तैयार शाक हो चुका-तब उसने उसमें से एक मिन्दु मात्र शाफ अपनी हथेली पर रखा और फिर उसे चबा-(आसाइत्ता त खार कडय अक्सज अभोज विसम्भूय जाणित्ता एव चयामी-घिरत्यु ण मम नागसिरीए अहन्नाए, अपुनाए दुर मगाए दुभगमत्ता दुभगणियोलियाए जीएणामए सालइए पहुसभारसमिरा नेतावगादे उवरखडिए) चखकर उसे ज्ञात हुआ कि यह शाफ तो चरन ग्वारा है, पहुत अधिक कडुआ है। खाने के योग्य नही है भोजन में लेने के लायक नहीं है, यह तो विप जैसा है एसा जानकर उसने मन ही मन विचार किया उस विचार मे उसने कहा-मुझ नागश्री को धिकार है, में अधन्या और अपुण्याहैं। जनो कदारा ओदर पाने योग्य नहीं है। मेरे इस पल को पार २ धिक्कार श-मेरा यह पल बिलकुल निष्फल हे मेने जो इस शाक के बनाने में इतना उद्यम किया है वह मेरा सर्वथा निष्फल गया। जिस प्रकार नीम उ५२ ही तरतु नु (उपसडिता एग बिदुय करयल सि आसाएइ ) ज्यारे શાક તૈયાર થઈ ગયું ત્યારે તેણે તેમાથી ફક્ત એક ટીપા જેટલુ શાક પિતાનીહથેળી ઉપર લઈને ચાખ્યું (आसादत्ता त खार कड्डय अखज्ज अभोज्ज विसन्भूर्यं जाणित्ता एव पयासी-धिरत्थु ण मम नागसिरीए अहन्नाए, अपुन्नाए, दुरभगाए' भेगसत्ताए भगणिपोलियाए जीएण मए सालइए बहुसभारसभिए नेहावगाढे उवक्खडिए) ચાખવાથી તેને લાગ્યું કે આ શાક તો ખૂબ જ ખારૂ છે, ખૂબ જ કડવું છે, ખાવાલાયક નથી, ભેજનમાં કામ લાગે તેવું નથી, આ તે ઝેર જેવું છે આમ જાણીને તેણે પિતાના મનમાં જ વિચાર કર્યો અને વિચાર કરતા તેણે પિતાની જાતને જ આ પ્રમાણે કહ્યું કે-અને-નાગથીને-ધિક્કાર છે, હુ ખરેખર અધન્યા તેમજ અપુણ્યા શુ હુ લેકે દ્વારા આદર મેળવવા લાયક નથી મારા આ બળને વારવાર ધિક્કાર છે, મારા આ બળ સાવ નકામુ છે શાક તૈયાર કરવામાં જેટલે મે શ્રમ કર્યો છે તે બધું નકામો ગયો જેમ લીમ
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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