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________________ मगारगो टीका ० ५ स्थापत्यापुनिष्क्रमणम् .२७ सवोध्य कथनैश्च, विज्ञापनाभिः त्वमेव ममास्या वृद्धावस्थायामाधारोऽसि अवल पनमसीत्यादि रूपेण सभेमदीनवचनेन पुनः पुनर्विज्ञप्तिपूर्वककथनैः, अत्र-विषया नुकूलाभिराल्यानादिरूपाभिश्चतुर्विधामिर्वाग्भिस्तथा विपयप्रतिकूलाभिराख्यानादिरूपाभिश्चतुर्विधाभि भिरिति भावः । 'आघवित्तए वा' ओख्यातु वा, प्रज्ञापयितु चा, विज्ञापयितु वा सशापयितु वा । यदा स्थापत्या स्वपुत्रमाख्यानादिभिः पतियोधयितु प्रत्रज्यातो निवर्तयितु न शक्नोति स्मेति सक्षिप्तार्थ । तदा सा 'अझामिया चेव' अकामिकै अनिच्छावत्येव स्थापत्यापुत्रस्य-स्थापत्यापुत्रनाम्नः स्वतनयस्य निक्खमणमणुमन्नित्था' निष्क्रमणमन्वमन्यत = अनिच्छया मनज्याग्रहणार्थमाज्ञा प्रदत्तवतीत्यर्थ । ततः तदनन्तर खलु सा स्थापत्यागाथापत्नी आसनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्यु. त्याय, ' महत्थ' महार्थ-महाप्रयोजनक, ' महग्ध ' महाघवहुमूल्यक, 'महरिह' महा-महता श्रेष्ठपुरुपाणा योग्य, 'रायरिह ' राजाई-राज्ञा योग्य, 'पाहुड' माभृतम्=उपहार — भेट ' इति भाषा प्रसिद्ध गृह्णाति, गृहीला मित्र-यावत् संपरिवृताम् अत्र यावच्छन्देन-ज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनैरित्यस्य सग्रहः यत्रैव अर्थात् आख्यान आदि चतुर्विधवचनों द्वारा जो कि विषयानुकूलता तथा विषयप्रतिकूलता के प्रदर्शक थे जब वह स्थापत्या गाथापत्नी उसे समझाने एव प्रव्रज्या से निवर्तिन करने के लिये असमर्थ हुई (तहे अकामित्ता चेव थावच्चापुत्तस्स निक्खमणमणुमनित्या) तब उसने विना इच्छा के ही स्थापत्यापुत्र को प्रवृज्या गृहण करनेकी आज्ञा दे दी (तएण सा थावच्चा आसणाओ अब्भुढेइ) बाद में वह स्थापत्या अपने आसन से स्थान से- उठी- (अभुट्टित्ता महत्थ महग्ध महरिह रायरिह पाहुण गेण्इ)उठकर उसने महार्थसाधक, श्रेष्ठ पुरूषों के, तथा राजा ओं के योग्य बहुत कीमती- उपहार लिया- (गिमिहत्ता) लेकर वह (मित्तजाव सपरिवुडा जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स) मित्र आदि परिजनों વચન દ્વારા કે જેઓ વિષયને અનુકુળ તેમજ વિષયને પ્રતિકૂળ હતા થાપ ત્ય પત્ની સમજાવીને પ્રજા લેતા પિતાના પુત્રને અટકાવવામાં સમર્થ થઈ Asी नल "तहे अकामित्ता चेव थावच्चा पुत्तरस निक्खमणमणुमन्नित्या" त्यारे તેણે ઈચ્છા ન હોવા છતા પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરવાની તેને આજ્ઞા આપી स्यारे स्थापत्या पछी याताना मासनथी भी थ (अन्भुद्वित्ता महत्थ महम्घ महरिह रायरिह पाहुण गेण्हइ) ली ४२ मा साध, उत्तम ५३धान तमा मान योग्य मई भिती लेट सीधी (गिण्डित्ता) avna (मित्त व सपरिखुडा जेणेय कण्ड्स वासुदेवस्स) भित्र वगेरे नानी साये
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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