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________________ ३९८ माताधर्मकथा रायमग्गमोगाढे ' राजमार्गमगाहान् राजमार्गममीपारस्थितान आवासान निवासस्थानानि पितरतिम्भरहन्नकादीनां वासार्थमाशा ददाति, प्रति विसर्जयति =एव व्यवस्था तदर्थ विधाय कुम्भको राजा स्वनिर्दिष्टानि वासस्थानानि गन्त मादिशति स्मेत्यर्थ । ततः सल अरहन्नक सायात्रिका यत्रत्र राजमार्गमत्र गाहिता राजमार्गसनिकृष्टा आसा मासस्थानानि वर्तन्ते तत्रोपागन्छन्ति, उपागत्य राजदत्तभवनेपु निवसन्तस्ते माण्डव्याहरण-गणिमादियम्य क्रयाणकास्तुजातस्य विक्रय कुर्वन्तिस्म० । कृत्या मातिभाण्ड-स्वकीय गणिमादिक भाण्डे विक्रीय तन्मूल्येन पुनरन्यत् मीत स्वोपयोगिाम्नुजातरूप भाण्ड प्रतिभाण्ड, तद् गृहन्ति-सचिन्वन्ति, गृहोत्या शकटी गारुटिक भरन्तिपूरयन्ति भृत्या मिथि लानगरीतः प्रस्थिता सन्तः यत्रै गम्भिरफ गम्भोरकारय पोतपत्तनम्नौकारोहण स्थान वर्तते तौवोपागच्छन्ति, उपागत्य पोतवहनम्नौकायान सज्जयन्ति-नवीनो उन की वस्तुओ पर से कर-टेक्स-माफ कर दिया। इन व्यवहारी अरहनकादिकों से क्रय विक्रय के व्यवहार पर नियमित राज शुक्ल मेरे नौकर न लेवे इस प्रकार का आज्ञा पत्र उन्हें लिखकर दे दियो । (विय रित्ता रायमग्गमोगाढेइ आवासेवियरह, पडिविसज्जे) शुक्ल भाव विषयक आज्ञापत्र प्रदान करके राजा फिर उन्हे राजमार्ग के समीप में रहे हुए राजकीय मकान ठहरने के लिये देदिये । इस प्रकार उनकी व्य वस्था करके बाद में कुभक राजा ने वहां से उन्हें विदा किया (तएणं अरहन्नग सजत्सा जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे-तेणेव उवागच्छति उवागछित्ता भडववहरण करेंति, करित्ता पडिभड गिण्हति गिहित्ता सगडी० भरेंति, भरित्ता जेणेव गभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता पोयवहण सज्जेति) राजा से विना विदा लेकर वे अर हनक सायात्रिक जन जहा राजमाग में राजकीय भवन थे वहां आये। માફક વેપારી અરહન્તક પ્રમુખ વગેરેની પાસેથી કય વિકેયના ઉપર મારા રાજ કર્મચારીઓ શુક(કર)લે નહિ આ પ્રમાણેનુ આજ્ઞાપત્ર રાજાએ તેમને લખી આપ્યુ (वियरित्ता रायमग्गमोगाढेइ आवासे वियरइ, पडिविसज्जेइ ) શુક માફીનું આજ્ઞાપત્ર તેમને આપીને રાજાએ રાજમાર્ગની પાસે આવેલ પિતાને મહેલ તેમને ઉતરવા માટે આપે આ પ્રમાણે વ્યવસ્થા કરીને કુભક રાજાએ ત્યાંથી તેમને વિદાય કર્યા (तएण अरहन्नग सजत्ता जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेत उवागच्छति, उवागच्छित्ता भडववहरण करेंति, करित्ता पडिभड गिण्हति गिण्डित्ता सगडी भरेंति, भरित्ता जेणेव गभीरए पोयपणे तेणेन उवागच्छति,उवागच्छित्ता पोयवहण सज्जेति)
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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