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________________ भनगारधर्मामृतयपिणी टीका अ० ५ स्यापत्यापुत्र निष्क्रमणम् ३९ समाधिरूपः कल्पतरुरुत्पद्यते च । वैराग्यजलाssगमनमार्गरूपा नालिका तत्र सद्भा वना | ज्ञानदर्शनरूपाणि तत्र पुष्पाणि, स्वर्गापवर्गरूपाणि फलानि । देवलोके यत् सुख, यच्च सिद्धावस्थां प्राप्तस्थानन्तसुख, तदेव तत्फलरस', इति ॥ ०१२ ॥ मूलम् - तणं से कहे वासुदेवे थावच्चापुत्तेणं एव वत्तेसमाणे थावच्चापुत्त एव वयासी- एएण देवाणुप्पिया । दुरतिकमणिजा णो खलु सक्का सुचलिएणावि देवेण वा दाणवेण वा णिवारित्तए नत्थ अपणो कम्मrखएणं, तरणं मे थावच्चापुत्ते कण्ह वासुदेव एव वयासी जइण एए दुरतिकमणिजा णो खलु सक्का जाव नन्नत्थ अप्पणो कम्मक्खएणत इच्छामिणं देवाणुप्पिया । अन्नाणमिच्छत्त अविरइकसायसचियस्स अत्तणो कम्मक्खय करितए | सू० १३ ॥ टीका- 'तएण से कहे ' इत्यादि । ततः = तदनन्तर खलु स कृष्णवासु देव' स्थापत्यापुत्रेणेनमुक्तः सन् स्थापत्यात्रम् एव = वक्ष्माणमकारेण अवादीत्समाधि रूप कल्पतरू उत्पन्न होता है और बढता है । वैराग्यरूप जल के आने के लिये मार्गरूप नाली के समान वहा सद्भावना है। ज्ञान रूप वहां पुष्प हैं । स्वर्ग एव अपवर्ग (मोक्ष रूप इसके फल है देवलोक में जो सुग्व है तथा सिद्धावस्था प्राप्त जीव को जो अनन्त सुख है वही सब इसके फलों का रस है । सृ० १२ ॥ तण्ण से कहे वासुदेवे ' इत्यादि । टीकार्य - (तरण) इसके बाद ( से कण्हे वासुदेवे उन कृष्ण वासुदेव ने ( थावच्चापुत्त्रेण एव वृत्ते समाणे ) स्थापत्या पुत्र के इस प्रकार कहने पर ( एव वयासी) उमसे ऐसा कहा - ( एएण देवाणुपिया ! જળના મિંચનથી મમાધિરૂપી કલ્પતરુ ઉત્પન્ન થાય છે અને વધે છે. વૈરાગ્યરૂપી પાણીને લાવવામાટે સદ્ભાવનાએરૂપી નાળી છે જ્ઞાન દર્શન જ ત્યા પુષ્પ છે દેવલાકમાનુ સુખ તેમજ સિદ્ધાવસ્થા પ્રાપ્ત જીવને જે અન ત સુખ છે તેજ मागधा इन रस छे | सूत्र १२ ॥ ( तपण से कण्छे वासुदेवे इत्यादि । ) टीडार्थ – ( तएण ) त्यार पछी (से कण्हे वासुदेवे) कृष्णु वामुदेवे ( थावच्चा पुतेण एव कुत्ते समाणे ) स्थापत्या पुत्रनी या वात भालजीने ( एव वयासी )
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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