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________________ माताधर्मत्र याङ्गसूत्रे ४० हे देवानुप्रिय ! एते मृत्युजरादयः खलु दुरतिक्रमणीयाः = दुःपरिहरणीया, दुर्नि वारा इत्यर्थ' । एयमेवार्थ स्पष्टीकर्ताह' णो खलु सवरा इत्यादि । नो खल शक्या सुबलि केन अनन्तपल्पता देवेन = तीर्थकरेणाऽपि यद्वा-महावलवता केनापि देवेन दानवेन या निवारयितु निवर्तयितु नो खलु शक्याः, मृत्युजरादय इत्यन्वयः । देवो नादानत्रो वा मृत्युजरादीन रिपून् वारयितु समये नास्तीत्यर्थः । नान्यात्मन कर्मक्षयेण आत्मसचितमार्गक्षय विनाऽन्योपायेन मृत्युजरादि परिहारो नैव भविष्यतीति भावः । 1 - I ततः सलुस स्थापत्यापुत्रः कृष्णवासुदेवमेवमवादीत् यदि खलु एते दुर तिक्रमणीया नो खलु शक्या' - यावत् - यावत्करणादन - ' सुरलिकेन देवेन दानदुरतिकमणिजा णो खलु सक्का सुवलिएणानि देवेण वा दाणवेण वा निवारित णन्नत्य अपणो कम्मस्वण्ण) हे देवानुप्रिय ! ये मृत्यु जरा आदि दुरतिक्रमणीय है दु' परिहरणीय हैं। इसका निवारण करना ससारावस्था जीव के लिये सर्वथा अशक्य है । इसी अर्थ को सूत्रकार स्पष्ट करते हुए कह रहे है कि सुलिक अनन्त बल के स्वामी तीर्थंकर देव भी अथवा महाबलवान कोई भी देव था दानव इन मृत्यु जरा आदि को को निवारण करने के लिये सामर्थ्य शाली नहीं हो सके हैं । केवल आत्म सचित सकल कर्मों का क्षय ही एक ऐसा उपाय है। जो इनका निवारण कर सकता है । इनके सिवाय और कोई दूसरा उपाय नही है । (तरण से यावच्चापुत्ते कण्ह वासुदेव एव वयासी ) कृष्ण वासुदेव की इस बात को सुनकर स्थापत्यापुत्र ने तब उन से इस प्रकार कहा - ( जण एए दुरतिकमणिजा णो खलु सका जाव न(एए ण देवाणुपिया । दुरतिक्कमणिज्जा णो खलु सक्का सुबलि एणा वि देवेण वा दाणवेण वा णिवारितप णन्नत्थ अध्पणो कम्मकरण ) હે દેવાનુપ્રિય । આ મૃત્યુ વગેરે દરતીક્રમણીય છે. સસારમા રહેતા પ્રાણીને માટે તેનુ નિવારણુ અશકય છે ત્રકાર અહી એજ અને સ્પષ્ટ કરતા કહે છે કે સુખલિક એટલે કે અનન્ત બળશાળી તી કરદેવ અથવા તે મહાઅળવાન કાઇ દેવ કે દાનવ પણ આ મૃત્યુ ઘડપણ વગેરે ને દૂર કરવાનુ સામ શ્ય ધરાવી શકયા નથી ફકત આત્મ સચિત સકળ કર્મોના ક્ષયજ એક માત્ર, ઉપાય છે કે જે આ મૃત્યુ ઘડપણુ વગેરેનુ નિવારણ કરી શકે એના સિવાય जीन अध उपाय अभने हेमाता नथी (तरण से थावच्यापुत्ते क्ण्ड वासुदेव एव षयासी ) ष्णु वासुदेवनी या वात सालजीने स्थापत्या पुत्रे तेभने भा प्रभा ४ ( जइण एए दुरतिक्कमणिज्जा णो खलु सक्का जाव नन्नत्थ तेम ८८
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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