SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 763
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगारधर्मामृतयर्षिणीटीका अ. ४. गुप्तेन्द्रियत्वे कच्छपशृगालदृष्टान्त ७४५ ज्ञात्वा शनैः शनीवां नयति, शरीराद्वहिनिःसारयति नीत्वा वहिष्कृत्य 'दिसावलोयं' दिगवलोकं-सर्वदिक्षु दृष्टिमवार करोति कृत्वा 'जमगममगं' अयं देशीशब्दः युगपत् एकस्मिन् समये चतुरोऽपि पादान् ‘णीणेई' नयति निःसारयति 'णीणित्ता' नीत्वा निःसार्य 'ताए' तया लोकप्रसिद्धया उत्कृष्टया कूर्मगत्या 'वीइवयमाणे २१ व्यतित्रजन् २ अतिशीध्रगत्या धावन् २ यत्रैत्र मृतगङ्गातीर दस्तत्रैवोपागच्छतः, उपागत्य 'मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरि. यणेग' मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनेन 'सद्धिं' 'साधम् 'अभिसमनागए' अभिसमन्वागतः सर्वथा समन्वितः संमिलितश्चापि 'होत्था' बभूव ।सू. १३॥ मूलम्-एवामेव समणाउसो जो अम्हं समणो वा समणी वा० पंच य से इंदियाइं गुत्ताई भवंति जाव जहां से कुम्मए गुतिदिए ॥ सू. १४ ॥ है--वे बहुत दूर पहुंच गये-गोगे " इस प्रकार (जाणित्ता) जानकर (मणियं २ गी जीणेइ) धीरे २ अपनी गर्दन को शरीर से बाहिर निकाला--(गीणित्ता दिसाबलोयं करेइ करित्ता जमगसमग चत्तारि वि पाए णीणे.) वाहिर निकाल कर फिर उसने दिशाओंकी तरफ देखादेखकर एकही साथ उसने फिर अपने चारों पैरों को बाहिर निकाला णीणित्ता ताए उक्किट्ठाए कुम्मगइए वीइवयमाणे २ जेणेव मयंगतीरदहे तेणेव उवागच्छद) वाहिर निकाल कर फिर वह उस उत्कृष्ट कच्छप की गति से चलता २ अति शीव्रगति से दौडता दौडता--जहां मृत गंगा तीर हूद था वहां आया (उवागच्छित्ता मित्तनाइनियगसयगसंबंधि परियणेणसद्धि अभिसमन्नागए यावि होत्था) वहां आकर वह अपने मित्र, ज्ञाति: निजक, स्वजन, संबन्धी, परिजनों के साथ खूब हिला मिला । म. १३ Vता २ह्या हो' मा शत (जाणिना) तीन (सणियं २ गीवं जीणेट) धीमे धीम पोताथी ने शरीरनी महा२ अढी (णिणिना दिसावलोयं करेड करिता जमग समगं चत्तारी वि पाए णोणेड) मार दीन तेरे प्यारे मान्नु लथुनधन तेणे मेटी साथे यारे पर मार ढया (णीणित्ता ताए उक्किट्ठाए कुम्मगईए वीइवयमाणे २ जेणेव मयंगतीरहे तेणेव उवागच्छद) गडा२ दीन ते કાચબા પિતાની શીધ્ર ઝડપથી ચાલીને તીવ્ર ગતિથી દોડતો દોડતે જ્યાં મૃત ગગાતીર ६ ते त्यां पश्ये. (उवागच्छित्ता मित्तनाइ नियगमयगसंबंधिपरियणेण सद्धि अभिसमन्नागए याविहोत्था) त्यां पडचीन ते पाताना भित्र, शाति, નિજક, સ્વજન, સંબંધી અને પરિજને ની સાથે સુખેથી મળી ગયે. મૂત્ર ૧૩
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy