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________________ ७४२ ज्ञाताधर्म कथासूत्र यावद् दन्तैरास्फोटयतः, अयं भावार्थ:- उद्वर्तनानन्तरं तौ श्रृंगालौ परिवर्तनमनागपसारण - पुनः पुनः स्थानान्तरप्रापण-चालन घट्टनेषचालन - क्षोभणरूपविविधव्यापारैः संचालय नखैराच्छिद्य दन्तैः खण्डशः कुरुत इति। 'जाव करेत्तए' यावत् कर्तुम्, यद्यपि तौ श्रृंगालौ नखदन्ताघातैः कूर्मकं पीडयितुं प्रवृत्ती तथापि न शक्तस्तस्य कर्मकस्य कामपि वाघां चर्मच्छेदं वा कर्तुमित्यर्थः 'तरण' ते पात्र सियालगा' इत्यादि । टीकार्य -- (der) इसके बाद (ते पावसियालगा ) वे दोनों पापी भूगोल ( जेणेव से दोच्चए कुम्मए तेणेव उवागच्छति ) जहाँ वह द्वितीय कच्छप था वहाँ गये (उवागच्छिता तं कुम्मए सव्व समंता उन्नते ति, जात्र दंतेहिं अक्खोढें वि, जाव करेत्तर) वहां जाकर उन्होंने उम कच्छप को सब प्रकार से और सब तरफ से उल्टा सीधा किया -- यावत् दांतों से उसे चौथा (काटा) भी परन्तु वे उसके शरीर में किसी भी प्रकार की बाधा करने में और उसके चर्म को छेदन करने में समर्थ नहीं हो सके मतलब इसका इस प्रकार है- जब उन दोनो पापी - श्रृगालों ने उस कच्छप को पल्य-नीचे के प्रदेश को ऊँचा किया तो वे इतना ही व्यापार कर विरत नहीं हुए-किन्तु उद्वर्तन के बाद उन्होंने उसे परिवर्वित भी किया -- मनाग अपसारित भी किया -- बार बार उसे एक स्थान से दूसरा स्थान पर भी रखा, उसे कपाया भी, अपने दोनों आगे के पैरों से घट्टित भी किया, कुछ आगे और भी उसे सरकाया - वहां भयजनक चेष्टाएँ भी की- नखों द्वारा उसे छेदित भी किया 'एण' ते पावसिपालगा' इत्यादि । टीकार्थ - - (तपणं) त्यार माह (ते पावसियालगा ) ने चायी श्रृगालो ( जेणेव से दोचए कुम्मर तेणेव उवागच्छति ) नयां जीले अर्थमा तो त्यां गया. ( उवागच्छित्ता तं कुम्मगं सव्वओ समता उवर्त्तेति जात्र दतेहि अक्खोडे ति, जात्र करेत) त्यांने तेथे ते भयणाने गधी शेते थारे માજુથી ઉલ્ટા સીધા કર્યો, અને દાંતાથી તેને કાપવાના પ્રયત્ન કર્યાં પણૢ તેઓ કોઈ પણ રીતે તેના શરીરને પીડા પહોંચાડવામાં અને તેની ચામડીને ફાડવામાં સમ થઈ શકયા નહિ. એટલે કે જયારે ખને પાપી શૃગાલાએ તે કાચબાને ઊંધા કર્યા--- નીચેના ભાગને ઉપર કર્યા આટલું કરીને જ તેઓ વિરમ્યા હાય તેમ નહિ પણુ ઉધ્ધતાન પછી શૃગાલેાંએ તેને પરિવર્તિત કર્યા, ઘેાડા આગળ ખસેડયે વારં વાર તેને એક સ્થાનેથી ખાન્ત સ્થાને લઇ ગયા, તેને હલાન્યા, ખને આગળના પગથી તેને ઘટિત પણકયો, ઘેાડે તેને સાગળ ખસેડયા ત્યાં ભયજનક ચેષ્ટાઓ કરી, નખા વડે
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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