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________________ अनगारधर्मामुतवर्षिणीटीका. अ २. २ भद्राभार्यायावर्णनम् ५६५ 'दायच' दायं = दानम् अभयदानादिक, पर्यादिवसादिदानं वा 'मायंच' भागं बर्द्धयामि प्रभूतद्रव्यमर्पयिष्यामीत्यर्थः, 'तिहु' इति कृत्वा इत्युक्वा 'उवाइयं' उपयाचितम् = अपत्यमाप्तिप्रार्थनारूपां मान्यता " मनौनी" इति प्रसिद्धाम् 'उवायत्तर' उपयाचितुं कर्तुं 'श्रयः' इति पूर्वेण सम्बन्धः । एवं सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य करने याssवलति नैव धन्यः सार्थवाहस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य एवमवादीत् - - एवं खलु अहं देवानुमियाः ! युष्माभिः अणु मि) यदि मे हे देवानुप्रियों ! अपनी कुक्षिसे पुत्र या पुत्री को जन्म दूंगी तो मैं आपकी सेवा करूंगी - आपके निमित्त अभयदानादिकका वितरण करूंगी, अथवा पूर्व दिनों में दान आदि बांटने की व्यवस्था करदूंगी। अपने हिस्से में आपके लिये विभाग अलग तथा आपके अक्षय कोष की वृद्धि करवा दूंगी - तात्पर्य इसका यह है कि मेरी मनो कामना पूर्णहोने पर मैं प्रभूत द्रव्य आप सबके लिये अर्पित करूंगी । (तिक उपयायं उवयाइत्तए) इस तरह की मुझे उनके पास मनौती मानता - मनाने में मेरी भलाई है। ( एवं संपेहेड) इस प्रकार का उसने विचार किया । (संपे हित्ता) और विचार कर ( कल्लजावजलते जेणामेव - घण्णे सत्थवाहे तेणामेव उवागच्छ ) वह दूसरे दिन ( उसी दिन ) प्रातः काल होते ही सूर्य के प्रकाशित होने पर जहाँ अपने पति धन्य सार्थवाह थे वहां गई । (उवागच्छित्ता एवं व्यासी) वहां जाकर उसने उनसे ऐसा कहा -- ( एवं खलु अह देवाणुप्पिया ! G याणि च अणुड्डेमि) डे हेवानुरियो ! ले भारा उरथी पुत्र पुत्री भन्भशे તે હું આપની પૂજા કરીશ. આપના નિમિત્તે અભયદાન વગેરે કરીશ, અથવા તે પહેલાના દિવસેામાં દાન વગેરે વહેચવાની વ્યવસ્થા કરીશ. મારા હિસ્સામા જે કઇં આવશે તેમાથી તમારા ભાગ જુદો મૂકાવડાવીશ તેમજ તમારા અક્ષય નિધિની પશુ હુ' વૃદ્ધિ કરીશ મતલબ એ છે કે જે મારી મનેાકામના પૂરી થશે તે હું प्रभूत द्रव्य तभारा श्ररोमा लेट ३ अर्पण अरीश (त्तिकडे, उवयाइयं उवया इत्तए) मा लतनी मान्यतामा ४ भने हुवे भारं श्रेय या प्रमाणे तेथे विचार . ( संपेहित्ता) भने विचार जेणामेव धणे सत्यवाहे तेणामेव उवागच्छड़) जीने हिवसे थतां नयां पोताना पति धन्य सार्थवाह हुता त्यां ) एवं वयासी) त्यां धने तेने साम गाय ( एवं सोहेड ) रीने (कल्लं जात्र जलते / सवारे सूर्योदय ( उवागच्छित्ता -- ( एवं खलु अहं देवाणुपिया 1
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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