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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ १ स. ३२ मेघमुनेरातध्यानप्ररूपणम् प्रादुष्प्रधातायां किंचित्प्रकाशयुक्तायां ग्जन्यां यावत्तेजसा ज्वलति-उदिते सूर्य इत्यर्थः, श्रमणं भावन्तं महावीरमापृच्छय पुनरपि अगारमध्ये वस्तुमितिकृत्वा-इति मनसि अवधार्य एव संप्रेक्षते पर्या लोचति विचार यतीत्यर्थः, संप्रेक्ष्य 'अदुवासट्टमाणसगए' आत दुःखात-वशातमानसगतः, तत्र-आतम् = आतध्यानगतं दुखात दुःग्वपीडितं, वशान नवदीक्षिात्वेन साबुहस्तसंघटनादिरूप.न् परीषहान् सोढुमसमर्थत्वात् खेदवशेन आत उपकुलं मानसं चिशं गतः-प्राप्तः, सयमपालने विचलितचित्तवान् इत्यर्थः, अतएव 'निरयपडिरूवियं' निरयप्रतिरूपिकां नरकसदृशीं संयमारतिजनितदुःखसाधात तां 'रयणि' रजनीं रात्रि क्षपयति व्यत्येति आपयित्वा 'कलं' कल्ये, द्वितीयदिवसे, "पाउप्पभायाए' प्रादुःप्रभातायां संजातमभाताया सुविमलायां सुप्रकाशवत्यां रजन्या-राव्यवसानसमये इत्यर्थः, यावत् तेजसा ज्वलतिउदिते मर्ये सकलखलु मम कल्लं पाउपभायाए रयणीए जाच तेयसा जलते समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमज्झं बसित्तए) अतः मुझे अब इसी में अच्छा है कि मै रजनी के प्रभात प्राय: होने पर और सूर्य के उदित होने पर श्रमण भगवान महावीर से पूछ कर पुनः अपने घर में रहूँ। (ति कट्ट एवं संपेहेड) इस प्रकार मेघकुमारने अपने मन में विचार किया। (संपेहित्ता अट्टदुहवसदृमाणसगए) विचार करके आर्तध्यान से युक्त दुःख से पीडित और नवीन दीक्षित होने के कारण साधुओं के हस्तादि संघटन से उत्पन्न परीपहों को सहन करने में असमर्थता की वजह से खेद व्याकुल मन वाले उस मेघकुमारने (णिरयपडिवियं च णं तं रयणि ख वेइ) संयम में अरति भाव को उत्पन्न करने के कारण नरक जैसी उस रात्रि को जिस किसी प्रकार से समाप्त किया। (खवित्ता कल्ल पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमज्झ वसित्तए) मेटो भाडित भने मामा हेपाय છે કે રાત્રિ પસાર થાય અને ભગવાન સૂર્ય ઉદય પામે ત્યારે ભગવાન મહાવીરને पूछीन री पातान! घरमा २९. (तिकट्ट एवं संपेहेइ) २ शते भेभारे पाताना भनभ विया२ ४य (संपेहित्ता अदुहवसदृमाणसगए) विद्यार કરીને આધ્યાનથી યુક્ત, દુખથી પીડાએલ, નવીન દીક્ષિત હવાને લીધે સાધુએના હાથ વગેરેની અથડામણથી ઉત્પન્ન પરીષહેને સહન કરવામાં અસામર્થ્યને सीधे ई युटत तमना व्याण मनवा मेघमारे (णिरयपडिरूवियं च णं तं रयणि खवेइ ) सयभमा मतिमा उत्पन्न ४२वा पहल न२४ वी ते त्रिने
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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