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________________ ४५० झानाधर्म कथानमत्र आलपन्ति सकृत् , 'संलति' सल ति पुनः पुनः, 'जप्पमई च णं' यत्प्रभृति च खलु, यदा-यस्मिन् समये अहं मुण्डा भूत्वा अगारादनगारितां प्रव्रजितः, तत्प्रभृति खलु मां श्रमणा निग्रन्थाः नाद्रियन्ते यावन्नो संलपन्ति 'अदुत्तरं चणं अनन्तरं च बलु अधुना पूर्वरात्रापररात्रकालसमये वाचनाद्यर्थ गच्छता निर्गच्छना श्रमणनिर्ग्रन्थानां तीबदुःखजनके स्तादि संघहादिभिश्च यावन्नशकामि नेत्रं निमीलयितु, 'तं से य खलु तच्छ्रेयः खलु मम ‘पाउप्पभायाए' जब में नहीं समझता था-अथवा ममत्राये हुए विषय को भूल जाता था नो वे मुझे वार२ समझाया करते थे । (जप्पभिइ च णं अह मुडे मवित्ता अगागो अणगारियं पश्यटए तापमिड च णं मम समणा नो आढायंति जाव नो गंलति) परन्तु अब तो बह बात नही रही है- मैं जिस दिन से मुडित हो कर अगार अवस्था से इस अनगार अवस्था में दीक्षित हुआ है उस दिन से ये समस्त श्रमण जन न मेगे आदर करते है, न बोलते हैंन संचाप करते हैं (अनुत्तरं च णं मम समणा निग्गंधा) तथा दूसरी बात एक और मेरे लिये यह हुई है कि ये श्रमण जन (राओ पुत्ररत्तावरत्त काल ममयंसि) जव रात्रि के पूर्व भाग में और पश्चाद्भाग में (वायणाए पुन्छणाए) याचना पृच्छना (जोव महालियं च णं रत्ति नो संचाएमि अच्छिमिमीलावेत्तण) आदि के लिये यहां से होकर निकलते हैं और आते हैं तो उनके तीव्रतर दृग्वजनक इम्तादि के संघटन से मेरी इतनी बडी यह गत विना निद्रा के ही निकल जाती है-मै इस स्थिति में एक पल भर के लिये भी आग्च की पलक नही पा सकता है। (तं सेयं વિષયને હું ભૂલી જતો હતો ત્યારે તેઓ મને વારંવાર સમજાવતા રહેતા હતા, (जमिह च ण ग्रह मुंडे भवित्ता अगारात्री अणगारियं पन्चइए तप्प भिड च णं मम ममणा नो आढायंति जाब नो संलति) ५२न्तु व ते पात કયા રાહી હું જે દિવસથી મુડિત થઈને અગાર અવસ્થાથી આ અનગાર અવસ્થામાં દીક્ષિત થયે છુ તે દિવસથી આ બધા શ્રમણજન મારો આદર કરતા નથી, મારા साथ मारता नया सा५ ५९ ४२ता नथी (अत्तर च ण मम समणा निग्गंधा) तभका ll पात मारे भाटे मा पर छ श्रमान (राओ पुचरत्नावरत्तकालसमयमि)त्यारे बिना पूर्वलामा गनेशविना पा सागमा (वायगाए पुन्छणाए) पाना मने पृछना (जावमहालियं च ण रत्तिनो संचाएमि अच्छि निमीलाबत्तए) पोरेन भाटे मी ने पा२ नीजे छ भने महाરથી અંદર આવે છે ત્યારે તેમના હાથપગની કઠણ સ ઘટ્ટન (અથડામણુ) થી મારી આટલી બધી મેટી રાત્રિ નિદ્રા વગર જ પસાર થઈ જાય છેઆવી પરિસ્થિતિમાં 5 मिनिट भाटे पाच निद्रा शत नथी. (तं सेयं खलु मम कल्लं
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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