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________________ 1 अनगारधर्मानृतदर्पिटीका अ, १ २६ मेघकुमारा भगवदर्शनादिनिरूपणम् ३२५ प्रत्यक्षादिममाणैरथाधितं एतत् प्रवचनमाराधयितुं वाञ्छितमित्यर्थः । 'पडिच्छियमेवं मंते' प्रतीष्टमेतद् हे भदन्त ! = हे भगवन् ! एतन्निरतिचारमाराधयितुं वाञ्छितमित्यर्थः । 'इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! इष्ट प्रतीष्टमेतद् भदन्त ! दे भगवन् ! घारपरिषहोपसर्गे संप्रप्तेऽरि निरतिचारमाराधयितुं सर्वथावाञ्छितमि त्यर्थः | 'से जहेत्र तं तुos जं' अथ यथैव सद्य वदथ यत् हे भग वन् ! यद् यूयं यथैव वदथ तत् तथैव, जीवाः यथा कर्मभिर्वध्यन्ते यथावामुच्यन्ते' इत्यादि यद् वद तत् तथैवास्ति । अथ मोक्षोपायभूतां प्रव्रज्यां ग्रहीतुमिच्छामि, नवरं = केवल हे देवानुप्रियाः ! मातापितरौ आपृच्छामि, तओ पच्छा' ततः पश्चात् 'मुडे भवित्ता' मुण्डो भूत्वा खलु प्रत्रजिण्यामि की बाधा नहीं आती है । ( इच्छियमेयं भंते ) अतः मैंने आपके इस निर्ग्रन्थ प्रवचन की आराधना करने की पूर्ण वाञ्छा करलो है । (पडिच्छि प्रमेयं भते) मेरी इस इच्छा को कोई रोक नहीं सकता है अतः मैने इस निर्ग्रन्थ प्रवचन की आगधना अविचार रहित हो कर ही करने की भावना की है । (इच्छियपडिच्छियमेय भते ) मैं इसकी आराधना निमित्त चाहे जितने भी घोर परीरह उपसर्ग आवे तो भी उन्हें सहन करने को तैयार हूँ । ( से जब त तुम्भे वह जं) जिस प्रकार अप कहते हैं वहउसी प्रकार हैअर्थात् जीव जिस तरह कर्मों से बचते हैं और जिस तरह वे उनसे मुक्त होते हैं यह व्यवस्था जैसीं आपने निर्ग्रन्थ प्रवचन में प्रकट की है वह ठीक वैसी ही है। इसलिये अब मैं मोक्षोपायभूत प्रत्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ । ( नवरं ) परन्तु (देवाणुप्पिया) हे देवानुप्रिय ? ( अम्मापियरोप्रमाणोथी यामां अपशु लतनो वांधा भावतो नथी. ( इच्छियमेयं भंते ) मेथी में आपना निर्ऋथ अवयननी माधिना श्वानी च्छारी छे. ( पडिभंते ) भारी छाने श्रेष्ठ शेडी राड़े सेभ नथी. भेटला भाटे भें આનિ થ પ્રવચનની આરાધના અવિચાર રહિત થઈને જ સંપૂર્ણ પણે આરાધના કરવાની ભાવના કરી છે (इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ) या माराधनाभ्भं गभे તેટલા ઘાર પરિષદ્ધ અને ઉપસ આવે તે પણ હું તેમને સહન કરવા માટે તૈયાર ४ ( से जहेव तं तुन्भे वदह ज ) प्रेम तसे अहो हो ते ते प्रभो छએટલે કે જીત્ર જેમ કર્મોથી બંધાય છે, અને જેમ તેએ કર્મોથી મુકત થાય છે, ની બ્યવસ્થા જેવી તમે નિગ્રંથ પ્રવચનમાં ખતાવી છે, તે ઠીક છે. એટલે હું भोक्षना उपाय भाटे अप्रन्या ग्रह देखा थाडु छु. ( नवर) पशु (देवाणुपिया) हे हेवानुप्रिय ' ( अम्मा पियरो आपुच्छामि ) मा विषे भारा भाता च्छियमेव 9 1
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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