SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२६ ज्ञाताधर्मकथा तदनु मेघकुमार प्रति भगवानाह 'अहासुहं देवाणुप्पिया' इत्यादि । हे देवानुप्रिय ! यथासुखं= यथासुखं भवेत तथा कुरु, प्रतिबन्धं = विलम्वं मा कुरु । श्रेयसि कार्ये प्रमादो न कर्तव्य इति भावः । ततः खलु स मेघकुमारः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा यत्रेव चातुर्घण्टोऽश्वरथ स्तत्रैवोपायच्छति उपागत्य चातुर्घण्टमश्वरथं दूरोहति =आरोहति, दूरुह्य = आरुह्य महता भटचटकर पहकरेण (परिलिप्तः ) राजगृहस्य मध्यमध्येन यत्रैव स्वकं भवनं तत्रैवोपागच्छति । उपागत्य चातुर्घण्टादश्वरथात् प्रत्यवरोहवि, आपुच्छामि ) मातापिताको इस विषय में पहिले पूछलू । (तम्रो पच्छा) इसके बाद (मुंढे ) मुडित (भवित्ता) होकर (णं पव्त्रइस्सामि) प्रत्रजित हो जाऊँगा ( अहासू देवाणुप्पिया ?) मेघकुमार की ऐसी बात सुनकर भगवान्ने उससे कहा -- देवानुमिय ? जिससे तुम्हे सुख हो वैसा करो । ( मा पडिवधं करेह) बिलम्व मत करो। अच्छे कार्य में प्रमाद नहीं किया जाता है (तएण से मेहेकुमारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमस) इसके बाद मेघकुमार ने प्रभु को वंदना की और नमस्कार किया । ( वंदित्ता नमसित्ता जेणामेत्र चाउघंटे आसरहे तेणामेव उवागच्छ ) वंदना नमस्कार करके फिर वे जहां अपना चातुर्घट अश्वरथ रखा था उस ओर गये (उवागच्छित्ता चाउ दुइ दुरुहिता महया भडचडगरपढकरेण रायगिहस्स नगरस्स मज्झमज्झेण जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छ) वहां जा कर वे उस पर आरूढ हुए और आरूढ होकर महाभटों के विस्तीर्णरूप परिवार समृह से युक्त हो कर राज गृह नगर के ठीक मध्यमार्ग से होकर अपने भवन पिताने पडेसा पूछी स. ( तो पच्छा) त्यार माह (मुंडे ) भुति (भविता) थर्धने ( णं पव्त्रइस्सामि ) निश्चितपणे प्रत्रनित था। via ( अहासुहं देवाशुपिया) भेधकुमारनी भी बात सांलजीने लगवाने तेने उधु—– हे देवानुप्रिय । જેમ તમને સુખ થાય તેમ કરા ( मा परिबंध करेह ) भोडु न श, सारा अभभा गम्बत १२वी नहि ( त एवं से मेद्दे कुमारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसह ) त्यार माह भेघकुमारे अलुनी वंदना श्री भने नभस्र . (वदित्ता नमसित्ता जेणामेत्र चाउरधंदे आसरहे तेणामेव उवागच्छ ) वहना भने નમસ્કાર કરીને પછી જ્યાં તેઓએ ચાતુટ ચાર ઘંટડીવાળા અશ્વ રથ મૂકયા हतो ते त्यां गया. ( उनागच्छित्ता चाउरघंटं दृरु दुरुहित्ता महया भड चडगरप करेण रायगिहस्स नगरम्स मज्ज्ञ मज्जेण जेणामेव सए भवणे तेणामेव उत्रागच्छ ) त्यांने तेथे तेना उपर मेठा भने मेसीने महालटोना વિશાળ પરિવારથી યુકત થઈને રાજગૃહનગરના મધ્ય માર્ગથી રાજમાથી પસાર થઈને
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy