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________________ ૨૪ ज्ञात धर्म कथा सम्बन्धमवचनम्, 'एव पात्तयामिण अंत ! एवंप्रत्ये | म = खलु हे भगवान् यथा भाता प्रतिबोध्यते। तथैव जीवादिस्वरूप मस्ती' ति प्रतीतिं करोमि । रोयामि भंते! रोचयाभि खलु हे भगवन् पीयूषधाराद्वाच्छामि । श्रभुमि णं संते ? निग्र्गं पात्रयणं' अभ्युत्तिष्ठाभि= समाराधनार्थमुद्यतो भवामि, खलु हे भगवान् ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्, 'एवमेय भंते !' 'एवमेतद् भगवन् ! एतत् प्रवचनम् एवम् - एकान्तेन सत्यमित्यर्थः, 'तहमेयं संते । तथ्यं = लममाणम्, एतत् मत्रचनं हे भदन्त ! 'अहिमेयं भंते !" अवितथं= इन निर्ग्रन्थ प्रवचन पर | ( एवं पत्तियामि अंते) प्रतीति करता हूं आपके इस निर्ग्रन्थ प्रवचन पर । भगवान् ? आपने जिस प्रकार जीवादितत्त्व का स्वरूप समझाया है उसी तरह से वह यथार्थ है इस तरह की मेरे हृदय में पूर्ण श्रद्धा है और इसी तरह की मेरें चित्त में पूर्ण प्रतीति हो चुकी है। वह अन्यथा नहीं हैं और न अन्य था ही हो सकता है । (रोयामिणं भंते ) प्रकार संतप्त पाणी अमृत धारा की चाहना करता है उसी तरह हे नाथ ? मै भी संसार तप्त आपके इस निर्ग्रन्थ प्रवचन की चाहना करता हूँ । (अभ्युमिणं भंते निग्गंथ पात्रयण) अतः हे भदन्त ? मैं आपके इस निर्ग्रन्थ प्रवचन की मम्यक महार से आराधना करने के लिये उद्यत होता (एवमेयं भते) कारण - आपका यह निर्ग्रन्थ प्रवचन एकान्ततः सत्य है। (नहमेयं भेते) कारण - आपका यह निर्ग्रन्थ प्रवचन (हमेयं भंते दे दन्त ? इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में एकान्तततः सत्यता की प्रख्यापक कोरी मेरी श्रद्धा आदि नहीं है किन्तु इसमें प्राणों का चल है । (अवितहमै भंते ) कारण प्रत्यक्षादि प्रमाणों से किसी भी प्रकार पत्तियामिणं मेते ) तभाग या निग्रंथ प्रवथन उपर अनीति (विश्वास) ३४. હું ભગવન ! તમે જે રીતે જીવ વગેરે તત્ત્વનું સ્વરૂપ સમજાવ્યું છે, તે જ પ્રમાણે તે સત્ય છે. આની મારા હૃદયમા પૂર્ણ શ્રદ્ધા છે અને આ પ્રકારની માન ચિત્તમાં પૂર્ણપણે પ્રતીતિ પશુ થઈ ગઈ છે તે અન્યથા નથી અને તે અન્યથા થઈ શકે चलु नहि (रायामि नते) प्रेम सतप्त आ अमृतधारानी छ, तेभ હું નથ ! સંસાર તક્ષ હું પણ આપના આ નિગ્રંથ પ્રવચનની ઇચ્છા કરૂ છુ (अभ्युदेमिणं भने निबंध पात्रगणं ) तेथी हे लढन्त । तभाश निर्भय अवयનની ી પેઠે આરાધના કરવા માટે હું ઉદ્યત થયે છુ ( एवमेय भने ) भ आप आ निर्यथ प्रवयन अन्तत: सत्य छ ( तहमेयं भंते ) हे આ નિધ પ્રવચનમા એકાન્તત સત્યતાને કહેનારી ફ્કત મારી શ્રદ્ધા नयी पशु आभा प्रभानु ग ( अवितहमेयं भंते ) एकान्ततः सभ्य 1 लढन्त । વગેરે જ प्रत्यक्ष वगेरे
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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