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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका भ, १ सू० १५ अकालमेघदोहदनिरूपणम् २०५ एवं संप्रेक्षते = विचारयति संप्रेक्ष्य उत्तरपौरत्स्यं दिग्भागम् अवक्रामति = निर्ग छ, ति अवक्रम्य ' वेउन्त्रियसमुग्धारणं' वैक्रियसमृद्धातेन, विविधं स्वरूपं विविध क्रियां च कर्तुं समर्थ यच्छरीरं तदुद्वैक्रिय, तेनान्यद् वैक्रियशरीरमुत्पादयितुं स्वात्मप्रदेशानां वहिर्निःसारण समुद्धातः, तेन 'समोहणइ' समवइन्ति = स्वात्मप्रदेशान् प्रसार्य वहिर्निःसारयतीत्यर्थः, समवहत्य सख्यातानि योजनानि सहसा लाए पोसहिए अभय नाम कुमारे अट्टमभत्तं परिगिरिहत्ता णं मम मण सिकरेमाणे चिट्ठा) मेरा पूर्व संगतिक अभयकुमार नामका कुमार जंबूद्वीपनाम के द्वीप में स्थित दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र में रही हुई राजगृह नाम की नगरी में वर्तमान पौषधशाला में पौषधवती बनकर अष्टमभक्त लेकर मेरा वार२ स्मरण करता हुआ बैठा है- (तं सेयं खलु मम अभयस्म कुमारस्स अंतिए पाउन्भवित्तए) तो मुझे अब यही योग्य है कि मैं अभ यकुमार के पास में प्रकट हो जाऊँ (संपेहित्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसिभागं अवकमइ ) ऐसा विचार कर वह देव उत्तरपौरसत्य दिग्विभाग की और अर्थाद ईशान कोण की तरफ चला (अवक्कमित्ता वेउच्चियस मुग्धारणं समो हणइ) चलकर वैक्रियिक समुद्धात से उसने अपने आत्मप्रदेशो को फैला कर बाहर निकाला | जो विविध प्रकार के स्वरूप एवं विविध प्रकार की क्रिया के करने में समर्थ होता है उस शरीर का नाम वैक्रिय शरीर है जो अपने आत्मप्रदेशों का वाहिर निकलना होता है इसका नाम वैक्रिय ममुद्धात है। (समोहणित्ता संखेज्जाउं जोणाई दंड निसारेइ) आत्म प्रदेशों को बाहर निकालकर उस देवने संख्यात् योजन पर्यन्त उन प्रदेशों को 1 अनिए पाउनवित्तए) तो हुवे भारे न्ालयङ्कुभारनी साभे प्रगट थवु ं लेागे, (संपेहित्ता उत्तरपुर स्थिमंदिसि भागं अनकमड) याभ विचार पुरीने ते देव उत्तरपौरस्त्यद्दिशा तरई भेटते ! ईशान आएषु तर यास्या. (अवक्कमित्ता वेउन्द्रियसमुग्याएणं समोहणइ ) ચાલીને તેઓએ વૈક્રિયિક સમુદ્ધાત દ્વારા પોતાના આત્મ પ્રદેશના વિસ્તાર કરીને બહાર પ્રગટ કર્યાં. [જે વિવિધ જાતના સ્વરૂપે તેમજ અનેક પ્રકારની ક્રિયા કરવાનુ સામ રાખે છે. તે શરીર “વૈયિ” શરીર કહેવાય છે, અને જે પોતાના આત્મ अद्देशाने अड्डार अगट कुरै छे ते वैश्यि समुद्धात छे. ] (समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई दर्ड निसारेइ) आत्मप्रदेशने महार अष्ट अरीने हेवे संध्यात योन्न सुधी ते प्रदेशाने દંડાકા- રૂપે વિસ્તૃત કર્યાં. આ પ્રમાણે ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ સંખ્યાત યાજન સુધી આત્મ
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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