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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४१ उ.१ राशियुग्मनिरूपणम् अस्त्येकके तेनैव भवग्रहणेन बिद्धयति थायद अन्त अन्ति । तेषां सोसाय माप्स्यमानत्वेन तत्समये अक्रियत्व सद्भावाद, 'अत्थेगहया नो तेणे मागहणेणं सिझंति जाव अंतं करें ति' अस्त्येक मनुष्या नो तेनैद भरग्रहणेन सिद्धयन्ति यावत् सर्वदुःखानामन्तवन्तीति । 'जह आय अजब उनजीवंति कि सलेस्सा अलेस्सा' यद्यात्मनोऽयश उवजीवन्ति तदा किं ते मनुप्याः सलेगा अलेश्या वा भवन्तीति प्रश्नः, अगवानाह-'गोयमा ! सलेस्सा नो अस्मा' हे गौतम ! तदा ते सलेश्या नो अलेश्या भवन्तीति । 'जाममा सिनिरिग अकिरिया' यदि सलेश्यास्ते मनुष्या स्तदा किं सक्रिया अक्रिया वा भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सकिरिया नो अंत करेंलि' हे गौतम ! इन में कितने ऐसे मनुष्य होते हैं जो उनी भवसिद्धिक होते हैं यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। यहां मोक्ष की भविष्यत् में प्राप्ति के सद्भाव ने अक्रियता का सद्भाज हो जाना है। 'अत्थेगाया नो तेणेव भवराहणेण लिज्झतिजाव अंतररेलि' तथा इन में कितनेक मनुष्य ऐसे होते हैं जो उन्ही सघ से सिद्ध नहीं होते हैं यावत् समस्त दुःखों का अन्त नहीं करते हैं 'जर आय अजस उपजीवंति किं सलेस्सा अलेस्सा' यदि आत्म असंयम का आश्रय करले हैं तो क्या वे मनुष्य सलेश्य होते हैं अथवा अलेग्य होते हैं? 'गोचमा! सलेस्सा नो अलेस्सा' हे गौतम! वे सलेश्य होते हैं अश्य नहीं होते हैं ? 'जह सलेस्सा सिकिरिया अकिरिया' यदि वे सश्य होते हैं तो क्या क्रिया सहित होते हैं अथवा क्रिया रहित होते हैं ? 'गोयामा ! अंत करेति' हे गीतम! तमामा टसा मनुष्य मेवा जय छ 3-२१ ભવમાં સિદ્ધ થઈ જાય છે, યાવત્ સઘળા દુખોનો અંત કરે છે. અહિયા ભવિષ્યમાં મોક્ષ પ્રાપ્તિના સદૂભાવથી અક્રિયપણને સર્ભાવ થઈ જાય છે. 'अत्थेगइया नो तेणेव भवगाहणेण सिज्जति जाव अत पारेति' तथा तमाम કેટલાક મનુષ્યો એવા હોય છે કે-જેઓ એજ ભવમાં સિદ્ધ થતા નથી. યાવત सामान। मत २ता नथी. 'जइ आय अजसं उवजीवति किं सलेस्सा અરણ' જે તેઓ આ અસંયમને આશ્રય કરે છે તો શું તે મનુષ્ય લેશ્યા સહિત હોય છે? કે લેડ્યા વિનાના હોય છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે ३-'गोयमा सलेस्सा नो अलेस्ता' गीतमा तेसवेश्यावाणाडाय छे, सेश्या विनाना Bाता नथी. 'जइ सलेवा कि सकिरिया अकिरिया तसा देश्यावाण હોય છે, તે શું કિયા સહિત હોય છે કે કિપ વિનાના હોય છે? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ४९ छेटे-'गोंयमा! सकिरिया नो भकिरिया गौतम ! तेस। BAL सहित
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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