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________________ ७१६ . भगवतीसूत्र अकिरिया' सक्रियास्ते भवन्ति नतु अक्रिया भवन्तीति । 'जह सकिरिया तेणेव भवग्गणेणं सिझति जाब अंत करें वि' यदि ते सक्रिया स्तदा कि तेनैव भवग्रहणेन सिद्धयन्ति यावदन्तं कुर्वन्तीति प्रश्नः, उत्तरमाह-'णो इणढे सस?' नायमर्थः समर्थः । एते तेनैव भवग्रहणेन न सिद्धयन्ति आत्माऽयशस्कत्वेन तद्भावमोक्षाऽपगावात् । 'वाणमंतर जोइसियवेमाणिया जहा नेरइया' वानव्यन्तर ज्योतिष्क वैमानिका यथा नैरयिकाः नैरयिकवदेव एतेषामपि तिर्यगृमनुष्याभ्यामागस्योत्पत्तिरित्यादिकं सर्व ज्ञातव्यमिति । 'सेव ! भंते ! सेवं भंते त्ति' तदेवं सकिरिया नो अकिरिया' हेगौतम ! वे सक्रिय होते हैं अक्रिय नहीं होते हैं । 'जह सकिरिया तेणेव भवग्गणेण लिज्झति, जाव अत करेंति' यदि के सक्रिय होते हैं तो क्या वे उसी भव से सिद्ध होते हैं यावत् समस्त दुःखों का अन्त कर ले हैं ? 'जो इण्टे समद्दे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं हुआ है । क्योंकि आत्म असंयमवाले होने से वे तद्भव मोक्षगामी नहीं होते हैं । 'याणमंतर जोसिय वेवाणिया जहा नेरइया' वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक इन के सम्बन्ध में भी नरधिको के जैसा ही कथन जानना चाहिये । इनकी भी उत्पत्ति तिर्यग्योनिक जीवों में से और मनुष्यों में से आये हुए जीवों से होती है। अर्थात् मनुष्य गति से और तिर्यग्गतिले आये हुए जीव ही वानव्यन्तरादि रूप से उत्पन्न होते है । इत्यादि सब कथन नैरयिकों के जैसा ही जानना चाहिये । 'सेव मते ! सेवं भंते ! त्ति' हे भदन्त जैसा आपने यह कहा है वह सब सर्वथा सत्य ही है । इस प्रकार कहकर गौतमने डाय छे. या विनाना हातानथी. 'जः सकिरिया तेणेव शवगणेण सिझति, आव अत करे ति' त या सहित हाय छ ? तो शु. तसा शेर लम सिद्ध थाय छ १ यार सघणा गाना मत ७२ छ १ णो इणटे समदे' गीतम! PAL Aथ ५३११२ नथी. भ3-माम सयभामा वाथा तया मे समा भाक्ष प्रात ४२वा हा नथी 'बाणमतर जोइसिय वेमाणिया जहा नेरइया' वान०यन्तर, यति मन वैमातिना समयमा પણ નરયિકના કથન પ્રમાણે જ કથન સમજવું. તેઓની ઉત્પત્તી પણ તિર્યંચ નિવાળા જીવોમાંથી અને મનુષ્યમાંથી આવેલા છમાંથી થાય છે. અર્થાત્ મનુષ્યગતિથી અને તિર્યંચગતિથી આવેલા છે જ વાળવ્યન્તર વિગેરે પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. વિગેરે તમામ કથન નરયિકના કથન પ્રમાણે જ સમજવું. 'सेव भते । सेव भते ! ति सावन मा५ हेवानुप्रिये या विषयमा रे કથન કર્યું છે, તે સર્વથા સત્ય જ છે. હે ભગવન્ આપી દેવાનું પ્રિયનું સઘળું
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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