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________________ ૮ भगवती क ज्ञानावरणीयादिकं प्रकुर्नन्ति वनन्ति । तथा - ' वेसायहिया तुल्लविसेसाहियं करेंति' विमात्रस्थितिकाः विमात्रा- विपममात्रा स्थितिः- आयु ये पां ते fantasथतिकाः विषमायुष्का इत्यर्थः । तुल्यविशेषाधिकं पूर्ववदेव कर्म मकुर्वन्ति । ३ । 'वेमायद्विश्या वेमायविसेसाहिये कम्मं पकरेंति ४' विमात्रस्थितिका: विमात्रविशेषाधिकं कर्म ज्ञानावरणीयादिकं प्रकुर्वन्ति वध्नन्ति किमिति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम | 'अस्ये गइया तुलविया तुळविसेसाहियं कम्मं पकरेति' अस्त्येकके तुल्यस्थितिका भाग रूप और किसी एकेन्द्रिय जीवके संख्येय भाग रूप अधिक कर्मबन्ध को लेकर इस विकल्प में कर्मबन्ध में भिन्नता कही गई जाननी चाहिये । अथवा- 'वेमायडिया तुल्लवि से साहियं कम्मं पकरे ति' 'भिन्न २ स्थितिवाले एकेन्द्रिय जीव परस्पर में तुल्य विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं ? अथवा - 'वेमार्याहया वेमाय विसेसाहियं कम्मं पकरेंति' 'भिन्न २ स्थितिवाले एकेन्द्रिय जीव भिन्न २ विशेषाधिक कर्मका बन्ध करते हैं ? ऐसे ये बन्ध के विषय में चार विकल्प रूप प्रश्न हैं । इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! अत्येगइया तुल्लट्टिया तुलविसे साहियं कम्मं पकरेंति' 'हे गौतम ! कितनेक एकेन्द्रिय जीव जो तुल्पस्थितिवाले होते हैं तुल्य विशेषाधिक कर्मका बन्ध करते हैं । 'अत्थेगया तुल्लहिया वेमयिविसेाहियं कम्मं पकरेति' કાઈ એક ઇન્દ્રિયવાળા જીવના સુખ્યાત ભાગ રૂપ કમ બંધને લઈને આ विमुल्यमां उमगंधसां नुहायागु धुं छे. ते समवु अथवा - 'वेमायद्विईया विसेाहिय कम्म' पकरेति' छुट्टी कुट्टी स्थितिवाणा गोड इन्द्रिय वा परस्परमां तुझ्य अथवा विशेषाधिना गंध रे छे ? अथवा 'वेमायट्ठिईया वेमायविखे साहिय कम्मं पकरेति' नुट्टी छुट्टी स्थितिवाजा मेड इन्द्रियवाजा જીવા જુદા જુદા વિશેષાધિક કરને બંધ કરે છે ? આ રીતે આ મધના સંબંધમાં ચાર વિકલ્પરૂપ પ્રશ્ન ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને પૂછેલ છે. આ પ્રશ્નના उत्तरमां प्रभुश्री मुडे छे है - 'गोयमा 1 अत्थेगइया तुल्लठ्ठिया तुल्लविसेस हिय' कम्मं पकरेति' हे गौतम! डेंटला खेड ईन्द्रियवाजा वो भे समान સ્થિતિવાળા હાય છૅ, તેઓ તુલ્ય અને વિશેષાધિક કર્મીના ખધ કરે છે, 'अत्थेइया तुल्लइिया वेमायविसेसाहिय कम्म' पकरे'ति' तथा अर्थ अर्ध समान સ્થિતિવાળા એક ઇન્દ્રિય જીવે એવા હાય છે કે જેઓ જુદી જુદી માત્રમાં विशेषाधि४ ४सना मध रे है ' अत्थेगइया लट्ठिक्ष्या तुल्लविसे साहियं
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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