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________________ % DEOpen प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ.श.१०८ वापृथ्विकायानां स्थानादिनि० ४३९ तुल्य विशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ति । 'अत्थेगइया मायद्विइया तुलबिसेमाहियं फम्म पकरेंति' असत्येक के विपात्ररिथविकाः तुल्यविशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ति । 'अत्थेगइया वैमायद्विइया मायबिसेसाहियं कसं पकरेंति' अरत्येकके विमात्रस्थितिका विमात्र विशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्तीत्युत्तरम् । ‘से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ अत्थेगइया तुल्लहिइया जाच वेमायवितेताहियं कसं पवारेंति ?' तत्केनार्थेन भदन्त ! एवम्युच्यते, अस्त्येक के तुल्यस्थितिका यावद् विमात्रविशेषाधिकं कर्म मकुर्वन्ति, अत्र यावत्पदेन अस्त्येकके तुल्यस्थितिका स्तुल्य. 'तथा कोई कोई तुल्यस्थितिवाले एकेन्द्रिय जीव ऐसे होते हैं जो भिन्न भिन्न मात्रा में विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं, 'अत्थेगहया नेमायटिया तुल्लविलेलाहियं कामं परफरेंति' तथा कोई कोई एकेन्द्रिय जीव ऐसे भी होते हैं कि जिनकी आयु परस्पर भिन्न भिन्न होती है पर वे तुल्य विशेषाधिक शर्मका बन्ध करते हैं। तथा-'जत्थेगाथा माय हिइया वेत्रायवि साहियं फम्म पकरे ति' कोई कोई एलेन्द्रिय जीव ऐसे भी होते हैं कि जिनका आयुकर्म भी परस्पर में भिन्न भिन्न होता है और वे भिन्न भिन्न विशेषाधिक कर्मका बन्ध करते हैं । 'ले केणटेणं भंते ! 'एवं बुच्चइ अत्थेगड्या तुल्लट्टिया जाच वेमायधिलेलाहियं कम्मं पफरेंति' हे भदन्त ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि कितने क तुल्पस्थितिवाले एकेन्द्रिय जीव तुल्पविशेषाधिक ज्ञानावरणीय आदि कर्मका बन्ध करते हैं और यावत् कितनेक भिन्न भिन्न स्थितियाले कम्म पकरे ति' तथा मे छन्द्रियाणा मेवा ५५ हाय કે–જેઓનું આયુષ્ય પરસ્પર જુદું જુદું હોય છે. પરંતુ તેઓ તુલ્ય અને विशेषाधि भनाम ४२ छ. तथा 'अत्थेगइया वेमायद्विइया वेमायविसेसाहिय कम्म पकरें ति' is मेन्द्रिय ~ 24 ५ हाय छे-मान આયુષ્ય કર્મ પણ પરસ્પરમાં જુદું જુદું હોય છે અને તેઓ ભિન્ન-ભિન્ન विशेषाधि४४मना मध ४२ छे. तथा 'अत्थेगइया वेमायद्विइया वेमायविसेखाहिय कम्म' पकरेंति' । मेन्द्रिय ७३ वा डाय छे ४-मायुष्य કર્મ પણ પરસ્પરમાં જુદું જુદું હોય છે. અને તેઓ ભિન્ન-ભિન્ન વિશેષા. घि भनी म ४२ छे 'से केणटेण भते । एवं वुच्चइ अत्यगइया तुल्ल ट्रिइया जाव विसेसाहिय कम्म पकरें ति' गवन् साय प्रमाण ॥ કારણથી કહો છે કે—કેટલાક તુલ્ય–સરખા શરીરવાળા એકઈન્દ્રિય જી તુલ્ય અને વિશેષાધિક જ્ઞાનાવરણય વગેરે કર્મને બંધ કરે છે ? અને યાવતુકેટલાક જૂદી જુદી સ્થિતિવાળા એકેન્દ્રિય જીવો જુદા
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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