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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ०११ ८०१ अचरमनारकादीना० पापकर्मबन्धः ६७७ over " - एतेषु कर्मबन्धाभावेन antara 'सेसपदे सव्वत्य पढमतझ्या संगा' शेषपदेषु सम्यग्मिथ्याला वेदकाळपायालेय केवलज्ञानायोगि व्यतिरिक्त सर्वपदेषु प्रथमतृतीय अवध्यात् बध्नाति भन्त्स्थति, अवघ्नात् न वध्नाति अन्त्स्यति इत्याकारको ज्ञातव्याविति । 'वाणमंतर जोइसियवेमाणिया जहा नेरइया' वानव्यन्वरज्योतिष्कवैमानिका यथा नैरविका नारकवदेव एतेषां मानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां सिश्रदृष्टिं विहाय सर्वपदेषु प्रथमतृतीयभङ्गौ ज्ञातव्याविति । शेषपदव्याख्यानम् अस्मिन्नेव प्रकरणे दिवेचितम्, 'नाम गोयं अंतरायं च जहेब नानावाणिज्जं तत्र निरवसेस' नामगोत्रमन्तरायं चकर्म यथैव ज्ञानावरणीयं तथैव निरवशेष बेदिन्यमिति । ' सेवं भंते ! सेवं आर अयोगी इन में कर्मवत्र का अभाव होने ले संग व्यवस्था का भी प्रभाव है-इसलिये इनके सम्बन्ध में प्रश्न नहीं किया गया है । 'लेसपदेसु सत्य पढनलया भगा' इनके मिश्रदृष्टि, अवेदक, अकषाघी, भले, केवलज्ञानी, और अयोगी के अतिरिक्त और समस्त पदो में प्रथम और तृतीय ऐसे दो भंग होते हैं ।' 'वागमंतर - जोहसिय वैमाणिया जहा नेपइया' वावव्यन्तर, ज्योतिष्क, और वैमानिक इनके सम्बन्ध में नैरमिकों के सम्बन्ध में किये गये कथन के जैसा कथन जानना चाहिये अर्थात् इनके भी मिश्रदृष्टि को छोडकर शेष समस्त पदों में प्रथम और तृतीय ये दो मंग ही होते हैं। शेष पदों का व्याख्यान इसी प्रकरण में किया जा चुका है । 'नामं गोयं अंतरायं च जहेत्र बाणावरणिज्जं तहेब निरवसेस' नाम, गोत्र, अन्तराय कर्म के सम्बन्ध में कथन ज्ञानावरणीय कर्म के सम्बन्ध में किये અને યેગી ા ધમાં ક્રમ મધના અભાવ હાય છે તેથી તેના ભંગ સ'ખંધી વ્યવસ્થાને પણ ભાવ છે. તેથી તેએાના સંબધમાં પ્રશ્ન જ કરवामां आव्या नथी 'सेपदेसु सव्वत्थ पढमतइया भंगा' तेयाने भिश्रद्रष्टि અનેદક, અકષાયી, અલૈશ્ય, કેવળજ્ઞાની અને અયાગી આ શિવાયના બાકીના સઘળા પદોમાં પહેલે અને ત્રીજો એમ એ ભગેાજ હોય છે 'राणमंतरजोइसियवे मागिया जहा नेरइया' वानव्यन्तर, भ्योतिष्णु, भने વૈમાનિકાના સ`ખધમાં, નૈરિયકાના સ ખ ધમાં કહેવામાં આવેલ કથન પ્રમાણે તું કથન સમજવુ. અર્થાત્ તેઓને પણ મિશ્રદૃષ્ટિવાળાને છેડીને બાકીના સઘળા પદેમાં પહેલેા અને ત્રીજો એ એ ભુ'ગજ હોય છે મકીના પદાનુ अथन या अश्शुभा श्वासां मान्य है. 'नाम गोय' अतराईय जद्देव
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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