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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ. १ सू०३ ज्ञानावरणीय कर्माश्रित्य बन्धस्वरूपम् ५६७ मन्स्यति अनागतकाले २, अवघ्नात् ज्ञानावरणीयमतीतकाले, कश्विदेको जीवो नबध्नाति च वर्तमानकाले, ज्ञानादरणीयमनागते च भन्त्स्यति ३ अवधनात् अतीते, ज्ञानावरणीयं कर्म कश्चिदेको जीवो न बध्नाति वर्तमानकाले, न मन्त्स्यवि स्वानागतकाले ४, इति । तत्र प्रथमो भङ्गोऽभव्यमाश्रित्य १, क्षपकत्वप्राप्तियोग्य मन्यमाश्रित्य द्वितीयो भङ्गः २, उपशान्तमोहजीवमधिकृत्य तृतीयो भङ्गः ३, क्षीणमोहजीवमपेक्ष्य चतुर्थो भङ्गः ४, इयमेत्र पापकर्मबन्धपकरण प्रदर्शितकर्म का बन्ध किया है, वर्तमान में वह उसका पन्ध कर रहा है, पर भविष्य में वह उसका बन्ध नहीं करेगा इस प्रकार का यह 'अबधनात् विध्नाति न भन्त्स्यति' द्वितीय भंग है । तथा-किसी एक जीव ने भूतकाल में ज्ञानावरणीय कर्म का वध किया है वर्तमान में वह उसका बन्ध नहीं करता है, पर भविष्यत् में वह उसका बन्ध करेंगा ऐसा यह 'अबध्नात् न बध्नाति, भन्त्स्यति' तृतीय भंग है । तथा- किसी .एक जीवने भूतकाल में ही ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध किया है, वर्तमान में वह इसका बन्ध नहीं करता है और न भविष्यत् काल में भी वह इसका बन्ध करेगा, इस प्रकार का यह 'बंधी, न बंधइ न बंधिस्तद्द' चतुर्थ भंग है । इन चार भंग में से प्रथम भंग अभव्य जीव की अपेक्षा से कहा गया है, द्वितीय संग क्षपकता की प्राप्ति के योग्य भव्य जीव की अपेक्षा से कहा गया है, तृतीय भंग उपशांत मोह वाले जीव की अपेक्षा से कहा गया है और चतुर्थ भंग क्षीण मोह વર્તમાનમાં તે તેને બંધ કરી રહ્યો છે, પરતુ ભવિષ્યકાળમાં તે તેના ખ'ધ नहीं' अरे थे रीतने। 'अबधनात् बध्नाति, न भन्त्स्यति' आ मीले मंग छे. २ તથા કોઈ એક જીવે ભૂતકાળમાં જ્ઞાનાવરણીય કર્માંના બંધ કર્યો છે, વર્તમાનમાં તે તેના અડધ કરતા નથી પરતુ ભવિષ્યમાં તે તેના ખધ કરશે, मा ते 'अबध्नात्, न बध्नाति, भन्त्स्यति' आ त्रीले लंग उह्यो छे. उ તથા કાઈ એક જીવે ભૂતકાળમાં જ જ્ઞાનાવરણીય કર્માંના અંધ કરેલ છે, વર્તીમાન કાળમાં તે તેના બંધ કરતા નથી અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે तेना मध अश्शे नहीं' या रीते या 'अवघ्नात्, न बध्नाति न भन्त्स्यति' मा ચાથેા ભંગ કહ્યો છે. ૪ આ ચાર ભગા પૈકી પહેલા ભગ સથા અભવ્ય જીવની અપેક્ષાથી કહેલ છે. ખીન્ને ભગ ક્ષપકપણાની પ્રાપ્તિને ચાગ્યે ભવ્ય જીવની અપેક્ષાથી કહેલ છે. ત્રીજો ભગ ઉપશાન્ત માહવાળા જીવની અપેક્ષાથી કહેલ છે અને ચેાથેા ભંગ ક્ષીણુ માહુવાળા જીવની અપેક્ષાથી કહેલ છે. આ ગ્રંથન સિવાય •
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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