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________________ ५२७ . प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ,१२०१ वन्धस्वरूपनिरूपणम् काले, न भन्स्यति अनागतकाले, क्षीणमोहो हि जीवोऽतीतकाले एव मोहाक्षयात् मागेव कर्मणो बन्धनं कृतम् वत्तेमानकाले कर्मबन्धनं न करोति वन्धनजनकस्य मोहस्याभावाल तथा भविष्यकालेऽपि कर्मबन्धनं न करिष्यति बन्धकारणस्य मोहस्य क्षीणत्वादिति, क्षीणमोहजीवाभिमायेण चतुर्थमनोऽपि भगवता समर्थित इति, तदेवं जीवविषयकाश्चत्वारोऽपि भङ्गाः कर्मवन्धविपये भगवता समर्थिता इति जीवद्वारनिरूपणमिति १ । ___ अथ द्वितीयं लेश्याद्वारमाह-ससे ण' इत्यादि, 'सलेइसे णं भंते ! जीवे सलेश्यो लेश्यावान जीवः खल भदन्त ! 'पावं कम्मं किंबंधी' पापमशुभं कर्म किम् अवधनात् अतीतकाले, 'बंधई बध्नाति वर्तमानकाले, 'बंधिस्सइ' भन्स्यति अनागतकाले कर्मवन्धनं करिष्यति किमिति प्रथमो भङ्गः सलेक्यजीवविषये का बन्धक होता है, पर वर्तमान में और भविष्यत् काल में वह पापकर्म 'का बन्धक नहीं होता-सो ऐसा जीव वह होता है जो क्षीण मोह वाला होता है, क्योंकि क्षीण मोह वाले जीव के द्वारा अतीत काल में तो पाप कर्म का बन्ध किया गया होता है पर वह वर्तमान कोल में और भविष्यत् काल में पापकर्म का बन्धक नहीं होता है, क्योंकि बन्ध के कारण भूत मोह का उसको अभाव हो जाता है। इस प्रकार से ये चारो भंग भी जो कि सामान्य जीव विषपक है वे कहे गये हैं। २-लेश्याद्वार निरूपण 'सलेस्से णं भंते जीवे हे भदन्त ! जो जीव लेश्यावाला है वह 'पावं कम्मं किं बंधी' क्या भूतकाल में पाप कर्म का बन्धक हुआ है? 'बंधई वर्तमान में वह क्या पापकर्म का बन्ध करता है ? 'पंधिस्सह બધ કરવાવાળે હોય છે, પરંતુ વર્તમાન કાળમાં અને ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કર્મનો બધ કરવાવાળો હોતો નથી. એવો જીવ તે હોય છે કે-જે ક્ષીણ મેહવાળો હોય છે. કેમકે-ક્ષીણ મહિવાળા જીવ દ્વારા તે વર્તમાન કાળમાં અને ભવિષ્ય કાળમા પાપકર્મને બંધક હોતો નથી કેમકે-બંધના કારણભૂત મહિનો તેને અભાવ થઈ જાય છે. આ રીતે આ ચારે અંગે પણ થાય છે કે જે સામાન્ય રીતે જીવ સંબધી છે, અર્થાત્ જીવમાં ભગવાને કર્મ બંધના વિષયમાં કહેલા છે. હવે લેશ્યાદ્ધિારનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે– 'सलेस्से ण भंते ! जीवे' भगवन् २१ देश्यावाणे डाय छ, त 'पाल' कम्म कि बधी' शु भूतमा पा५ मा ५५ ४२ना२ थये छ ? 'बधइ' वतमान सभा ते शु. पा५ भनी ५५ ४२ छ ? 'वधिस्सई' भने
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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