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________________ ११४ भगवतीस्त्रे आलोचितापराधानामवधारणवान् इति २ । 'ववहारवं' व्यवहारवान्-आगमश्रुतादि पञ्चपकारकव्यवहारज्ञः ३ । 'उन्धीलए' अपनीड का, लज्जया अतिचारान् गोपायन्तं विचित्रवचनै 'दिलज्जी कृत्य सम्यगू आलोचनां कारयति इत्यर्थः ४ । 'पकुपए' प्रकुर्वगः, आलोचितेषु अपराधेषु मायश्चित्तदानतो विशुद्धि कारयितुं समर्थ इति ५ । 'अपरिस्सावी' अपरिश्रावी, आलोचकेन आलोचि. तान् दोषान् योऽन्यस्मै न कथयति असौ अपरिश्रावीत्यर्थः ६। 'निज्जवए' निर्व्यापकः असमर्थस्य प्रायश्चित्तिनः प्रायश्चित्तस्य खण्डशः करणेन निर्वाहका ७ । 'अवायदंसी' अपायदर्शी आलोचनाया अदाने पारलौकिकः नरकादिषु अतिभय. वान् साधु आलोचना सुनने के योग्य होता है १ इसी प्रकार से 'आहारवं' आधारवान्-आलोचित अपराधों की अवधारणा करने चाला होता है। 'वचारवं' ओगम-श्रुतादि पांच प्रकार के जो व्यवहार पाला होता है 'अपनीडर' शरम से अपने अतिचारों को छिपाने वाले शिष्य को अपने मीठे वचनों द्वारा जो समझा कर शरम का त्याग कराकर अच्छे प्रकार से आलोचना कराने वाला होता है ४ । 'पकु. व्वए' प्रर्जक-आलोचित अपराध का प्रायश्चित्त दे करके जो अतिचारों की शुद्धि कराने में समर्थ होता है ५ अपरिस्रावी-सुने गयेशिष्य द्वारा प्रकट किये गये अतिचारों को जो दूसरों से नहीं प्रकट करता है ६, निर्यापक ७ असमर्थ शिष्य को-प्रायश्चित्त लेने वाले शिष्य को-थोडा २ प्रायश्चित्त देकर के जो उसको निर्वाह करने वाला होता है 'अधायदती ८ अपायदर्शी-आलोचना नहीं लेने वाले शिष्य વાન જ્ઞાનાદિ પાંચ પ્રકારના આચારેથી જે યુક્ત હોય છે તે આચારવાનું साधु मायना साना योग्य हाय छे. १ मे शते 'आहारव' साधारपान मालायित २५५२॥धानी अवधारणा ४२वास य छ २ 'ववहारवं' भागमश्रत वि२ पाय प्रा२ना व्यवहाराणा डाय छे 3 'अपव्रीड़क' शरमथा પિતાના અતિચારેને ઢાંકવાવાળા શિષ્યને પિતાના મીઠા વચનથી જ સમજાવીને શરમનો ત્યાગ કરાવીને સારી રીતે આલોચના કરાવવાવાળા હોય છે. ૪ 'पकवए' अg४-मालयन ४२स संपराधनु प्रायश्चित्त मापीन मतिया. शनी शुद्धि ४२.वामी समर्थ साय छे. ५ 'अपरिनावी' समोसा-शिष्य દ્વારા પ્રગટ કરેલ અતિચારોને જેઓ બીજાની આગળ પ્રગટ કરતા નથી ૬ 'निर्यापक' ७ सशत शिष्यने अर्थात् प्रायश्चित्त देवामा सशतिवा शिष्यने थोड प्रायश्चित्त मापीन तन निवड ४२पावाणा डाय छे. ७ 'अवायदंती'
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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