SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 437
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयश्चन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०८ प्रतिसेवनायाः निरूपणम् रुपालब्धोऽपि न कुप्यति ७ । 'दते' दान्तो दान्तेन्द्रियतया शुद्धिं सम्यग् वहति ८ । 'अमाई' अमायी-मायारहितोऽगोपयन्नपराधमालोचयति ९। 'अपच्छाणुवापी' अपश्चादनुतापी-आलोचिते अपराधे पश्चात्तापमनुकुर्वन् कर्मनिर्जराभागी भवतीति १० । 'अट्टहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहइ आलोयणं पडिच्छित्तए' अष्टभिः स्थानः संपन्नोऽनगारोऽहति-योग्यो भवति आलोचनां प्रतीष्टुम्-दातम् अष्टाभिः गुणैः संपन्नः साधुरालोचनादाने योग्यो भवतीत्यर्थः, तादृशाष्टगुणयुक्त मेव दर्शयति-तं जहा' इत्यादिना, 'तं जहा' तद्यथा 'आयारवं' आचारवान्ज्ञानादि पञ्चप्रकारकाचारयुक्तः १ । 'आहारवं' आधारवान्-अवधारणवान्भांति स्वीका कर लेता है । 'खंते' आलोचकको क्षमावाला होना चाहिये -इसलिये कि वह गुरु के द्वारा धमकाये जाने पर भी क्रुद्ध नहीं होता है। 'दंते' आलोचक को दान्त (इन्द्रिय दमन करने वाला) इसलिये होना चाहिये कि ऐसा साधु शुद्धि को अच्छी प्रकार ले धारण कर लेता है ८ । 'अमाई' आलोचक को अमायी (कपट रहित) होना चाहिये -इसलिये कि ऐसा साधु अपने अपराधों को विना छिपाये ही उनकी सम्यगू आलोचना करता है ९।। _ 'अपच्छाणुतापी आलोचक को अपश्चात्तापी इसलिये होना चाहिये कि ऐसा आलोचक आलोचना लिये बाद पश्चात्ताप नहीं करता है और कर्मनिर्जरा का पात्र होता है १० । 'अहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहा आलोयणं पडिच्छिन्तए' आठगुणों से युक्त अनगार साध आलोचना सुनने के लिये योग्य होता है जैसे-'आयारवं' आचारवान -ज्ञानादिरूप पांच प्रकार के आचारों से जेा युक्त होता है वह आचारमेला साधुणी सारी शत प्रायश्चित्तने स्त्रीले छे. 'ख' माय मा શીલ હોવા જોઈએ કેમકે તેઓ ગુરૂદ્વારા ધમકાવવા છતાં કોધ કરતા નથી ૭ તે આલોચકને દાન્ત (ઈન્દ્રિયનું દમન કરવાવાળા) એ માટે હેવું જોઈએ है सवा साधु सारी शत शुद्धीन धारण ४२ छ. ८ 'अमाइ' मानाय समायी (માયા-કપટ) હેવું જોઈએ. કારણ કે-એવા સાધુ પિતાના અપરાધને છુપાવ્યા १५२४ तनी सारी शत मातायन। ३२ छे. ८ 'अपच्छाणुतावी' माटोयो પશ્ચાત્તાપ વગરના એ માટે હોવું જોઈએ કે–એવા આલેચક આલોચના લીધા પછી પશ્ચાત્તાપ કરતા નથી. અને કર્મ નિજરાના પાત્ર હોય છે. ૧૦ “જ€િ ठाणेहि अणगारे अरिहइ आलोयण पडिच्छित्तए' मा गुणेथी युक्त मनगार. साधु मासायना मावाने योग्य हाय छे. १ ४ रीते 'आयारवं' भाया.
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy