SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ sheefer टीका श०२५ उ० ६ ०८ पञ्चदशं निकर्पहारनिरूपणम् १५९ हीणे' अनन्तगुणहीनः निर्ग्रन्थात् चारित्रपर्यवै रनन्तगुणहीनो भवति वकुश इत्यर्थः । ' एवं सिणायस्स वि एवं निर्ग्रन्यवदेव स्नातकस्यापि चारित्रपर्यवैर्वकुशोऽनन्तगुणहीनो भवतीति । 'पडि सेवणाकुसीलस्स एवं चैव वउसचत्तन्यया भाणि - यत्रा' प्रतिसेवनाकुशीलस्यैवमेव चकुशवक्तव्यता भणितव्या । ' कसायकुसीलस्स एस चैव सवा' कषायकुशीलस्य एषैत्र वकुशवक्तव्यता 'णवरं पुलाएण वि समं छट्टात्र डिए' नवरं पुलाकेनापि समं षट्स्थानपतितः । अयं भावः - 'कुशः पुलाकादनन्तगुणाभ्यधिक एवं विशुद्ध तर परिणामस्वात् । कुशात्तु वकुशः हीनादिरेव परस्परविचित्रपरिणामश्वात् । प्रतिसेवना- कपायकुशीलाभ्यां बकुशी हीनादिरेव । निर्ग्रन्थ स्नातकाभ्यां तु वकुशोहीन एवेति । मतितुल्य अथवा अधिक नहीं होता है । 'हीणे वि अनंतगुगहोणे' हीन होने पर भी वह उसले अनन्तगुण हीन होता है, असंख्यात अथवा संख्यातगुण हीन नहीं होता है । 'एवं सिणायस्स वि' इसी प्रकार स्नातक की चारित्रपर्यायों से बकुश अनन्तगुण हीन होता है । 'पडिसेवणा कुसीलस्स एवं चेव चउसवत्तच्चया भाणियन्चा' प्रतिसेवनाकुशील में भी इसी प्रकार से वकुश की वक्तव्यता कहनी चाहिये । तथा'सायकुसीलस्स विएस चैव वक्तव्या' कषायकुशील में भी यही कुश की वक्तव्यता कहनी चाहिये 'नवरे' परन्तु 'पुलाएण वि सम छाडिए' पुलाक के साथ भी यहां पर षद्स्थान पतित होता है । 4 मतलब इस कथन का इस प्रकार से है- वकुश पुलाक से अनन्तगुण अधिक ही होता है क्यों कि वह विशुद्धतर परिणामबाला होता हीन होय छे. तुझ्य अथवा अधि होता नथी, 'हीणे वि अनंतगुणहीणे' હીન હોવા છતાં પણુ અનંતગુણુ હીન હૈાય છે. અસંખ્યાત અથવા સાત यु हीन होता नथी. 'एव' सिणायस्स वि' से प्रभाषे स्नातस्ना शास्त्रि पर्यायाथी अङ्कुश अनंतगुण हीन होय छे. 'पड़िसेवणाकुसीलस्स एवं चैव वउसवत्तव्त्रया भाणियव्वा' अतिसेवना कुशीतमा पशुप्रभा मञ्जुशनां स्थन अभाषेनु ं स्थन हेवु लेह तथा - ' कसायकुसीलस्स वि एस चैव वत्तव्वया' षाय, ठुशीलना संभा पशु अशना उथन प्रभा ४थन ४२वु लेहये. 'णवर" परंतु 'पुलाए णं विसम वाणवदिए' साउनी अपेक्षाथा ખકુશ છે સ્થાનથી પતિત હાય છે. આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે- અકુશ પુલાક કરતાં અનંતગગ્! વધ રે હીન હૈાય છે. કેમકે-તે વિશુદ્ધતર પરિણામવાળા હાય છે. પરંતુ એક અકુશ
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy