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________________ - - भगवतीसत्रे १२८ अषिराधनं प्रतीत्य इन्द्रतयोत्पधेत अविराधनं ज्ञानादीनाम् अथवा लब्ध्याऽनुपजीवनम् अतस्तादृशमविराधनं प्रतीत्य इन्द्ररूपेण उत्पद्यते पुलाकः, 'सामाणियत्ताए उवाज्जेज्जा' सामानिकतया उत्पद्यत अविराधन प्रतीत्य इत्यस्य सर्वत्रान्वय अहनीयः, 'वायत्तीसाए उववज्जेज्जा' त्रायस्त्रिंशदेवतया उत्पधेत, 'लोगपालत्ताए उववज्जे. ज्जा' लोकपालतया-लोकपाल देवरूपेणेत्यर्थः, उत्पधेत, 'नो अहमिंदताए उवव. ज्जेज्जा' नो अहमिन्द्रतया उत्पद्येत । 'विराहणं पडुच्च अन्नयरेमु उववज्जेना' विराधनं ज्ञानादीनां प्रतीत्य अन्यतरेषु भवनपत्यादिदेवेषु स विराधक उत्पद्येतेति । मिंदत्ताए चा उवधज्जेज्जा' अथवा अलपिन्द्रदेव रूप से उत्पन्न होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! अविराहणं पडु. च्च इंदत्साए उवचज्जेजा' हे गौतम ? संयम आदि की अविराधना से वह इन्द्ररूप से उत्पन्न होता है, अधिराधना पद से यहां यही सम. झाया गया है कि यदि उसने ज्ञानादिकों की विराधना नहीं की है अथवा लधि का प्रयोग नहीं किया है तो इस स्थिति में वह इन्द्ररूप से उत्पन्न हो नहीं सकता है। इसी प्रकार से वह अविराधना की स्थिति में सामानिकदेव रूप से उत्पन्न हो सकता है। 'तायत्तीसाए उधवज्जेज्जा' अविराधना की स्थिति में वह त्रायस्त्रिंशत देवरूप से उत्पन्न हो सकता है यहां अविराधना का सर्वत्र सम्बन्ध किया गया है 'लोगपालत्ताए उचज्जेन्जा' तथा च वक्ष अविराधना की स्थिति में लोकपालरूप से उत्पन्न हो सकता है। पर वह 'अहमिदत्ताए नो उववज्जेज्जा' अहमिन्द्र रूप से उत्पन्न नहीं हो सकता है! 'विराहणं पडुच्च अग्नयरेलु उपचज्जेज्जा' और जब यह ज्ञानादिकों की विराधना 'अहमिदत्ताए वा स्वरोज्जा' Aथा महभिद्र वयाथी उत्पन्न थाय छ । मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४३ छ -'गोयमा ! अविराहणं पडुच्च इंदत्ताए उववज्जेज्जा' गौतम ! सयम विगेरेना भविराधनापाथी छन्द्रपयाथी ઉત્પન્ન થાય છે. અવિરાધના પદથી અહીયાં એ સમજાવ્યું છે કે જે તેણે જ્ઞાનદિની વિરાધના કરી ન હોય અથવા લબ્ધિને પ્રવેગ કર્યો ન હોય તે તે સ્થિતિમાં તે ઈન્દ્રપણથી ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. એ જ રીતે તે અવિરાધના स्थितिमा सामानि देवपाथी उत्पन्न थ६ शो 'तायत्तीसाए उववज्जेज्जा' અવિરાધના સ્થિતિમાં તે ત્રાયશ્ચિંશત્ દેવપણાથી ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. અહીંયાં मधे भविराधनाना समय हो छ. 'लोगपालत्ताए उववज्जेज्जा' तथा त અવિરાધનાની સ્થિતિમાં લેકલપણાથી પણ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. પરંતુ તે 'अहमिंदत्ताए नो उववज्जेज्जा' महमिद्रयायाथी उत्पन्न यता नथी. "विराहणं पदुग्ध अन्नयरेसु उववज्जेज्जा' मने यारे ते ज्ञानाहिनी विराधना ४२ छ.
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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