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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०६ त्रयोदशं गतिद्वारनिरूपणम् १२३ किन्तु 'वेमाणिएसु उपदण्जेज्जा' वैमानिकेषु पुलाको मृत्वा समुत्पद्यते संयमस्याविराधनापेक्षया-सयमविराधने तु नैव वैमानिकेषु गच्छतीति भावः । 'वेमाणिएमु उक्वजमाणे जहन्नेणं सोहम्मे कप्पे' वैमानिकेत्पद्यमान पुलाको जघन्येन सौधर्म कल्पे समुत्पद्यते 'उक्कोसेणं सहस्सारे कल्पे उक्वज्जेज्जा' उत्कर्षेण सह सारे कल्पे उत्पयेत । 'वउसे णं एवं चेत्र' बकुशः खलु एवमेव वकुशविषये एवमेवपुलाकवदेव । बकुशः खलु भदन्त ! कालगतः सन् कुत्रोत्पद्यते ? गौतम ! देवलोकेषूत्पद्यते देवेपृत्पद्यमानो नो भवनवासिषु नो व्यन्तरेषु नो ज्योतिष्केषु अपि तु वैमानिकेषु समुत्पद्यते तत्रापि समुत्पद्यमानः जघन्येन सौधर्मे कल्पे में उत्पन्न नहीं होता है किन्तु 'वेमाणिएसु उवज्जेज्जा' वैमानिकदेवों में उत्पन्न होता है यह कथन संयम की अविराधना की अपेक्षा से कहा गया है यदि वह संयम की विराधना करदेता है तो वैमानिकों में उत्पन्न नहीं होना है। 'वेमाणिएसु उववज्जमाणे जहन्नेणं सोहम्मे कप्पे वैमानिकों में उत्पन्न होने योग्य हुआ भी यह जघन्य से सौधर्म कल्प में उत्पन्न होता है और उत्कृष्ट से 'उक्कोसेणं सहस्लारे कप्पे उववज्जेज्जा' सहस्रार कल्प में उत्पन्न होता है । 'बउसे गं एवं चेव' बकुश का उत्पाद भी इसी प्रकार से होता है । अर्थात् जब गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा प्रश्न किया-हे भदन्त। कालगत हुआ बकुश कहां उत्पन्न होता है ? तब प्रभुश्री ने उनसे कहा-हे गौतम ! वह देवलोकों में उत्पन्न होता है । देवलोकों में उत्पन्न होने वाला भी यह भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषक देवों में उत्पन्न नहीं होता है किन्तु वैमानिकों में ही उत्पन्न होता है । वैमानिकों में भी यह जघन्य परतु तसा वेमाणिएसु उववज्जेज्जा' वैमानिमा ५न्न थाय छे मायन સંયમની અવિરાધનાની અપેક્ષાથી કહેલ છે જે તે સ યમની વિરાધના કરે छे, तो वैमानिमा ५न्न थता नथी 'वेमाणिएसु उववज्जमाणे जहन्नेणं सहिम्मे कप्पे' वैमानि वामi G५-1 थवान योग्य थये पy न्यथा सीधz५i sपन्न थाय छ भने GBष्टथी 'उक्कोसेणं सहस्सारे कप्पे उववज्जेज्जा' सन्ना२ १५iपन्न थाय छ, 'उसे णं एवं चेवर બકુશને ઉત્પાત પણ આ જ પ્રમાણે થાય છે. અર્થાત્ ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એ પ્રશ્ન કર્યો કે-હે ભગવનું ક૯૫ ધર્મને પ્રાપ્ત કરેલ બકુશ સ ધું કયાં ઉત્પન્ન થાય છે ? એના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રીએ કહ્યું કે હે ગૌતમ! તે દેવકમાં ઉત્પન્ન થવાને યોગ્ય થવા છતાં પણ તે ભવનવાસી, વનવ્યન્તર અને - તિષ્ક દેવમાં ઉત્પન થતા નથી. પરંતુ વૈમાનિક દેવામાં જ ઉત્પન થાય
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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