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________________ " 1 प्रभैसन्द्रिका टीका श०६५ उ ४ ०४ मावतो जोवानां कृतयुग्मादित्वनि० ७९१ केवलनाण० पुच्छा ? जीवाः खलु भदन्त ! केवल ज्ञान० पृच्छा ? हे भदन्त ! जीवाः केवलज्ञानपर्यायैः किं कृतयुताः त्र्योजाः द्वापरयुग्माः कल्पोजरूपा वा भवन्तीति प्रश्नः ? भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम! ओघा देसेण वि विणादेसेण वि कडजुम्मा, नो तेयोगा नो दावरजुम्मा नो कलिओोगा' ओघादेशेनाऽपि कृतयुग्माः केवलज्ञानपर्यायाणामनन्तत्वादनवस्थितत्वाच्चेति न तु - पोजरूपाः नो द्वापरयुग्माः नो कल्यो जरूपावेति । ' एवं ' मणुस्मा वि एवं सिद्धावि' एवं मनुष्या अपि सिद्धा अपि केवलज्ञानपर्यायैः कृतयुग्मा एव न तुयोजादिरूपा इति । 'जोवे णं भंते ! मइअन्नाणपज्जवेहिं कि कडजुम्मे० ' जीवः व्यजादिरूप नहीं होते हैं । अब गौतमस्वामी अनेक समस्त जीवों को आश्रित करके प्रभुश्री से ऐसा पूछते हैं- 'जीवा णं भंते । केवलनाण पंज्जवेहिं० पुच्छा' हे भदन्त ! समस्त जीव केवलज्ञान की पर्यायों द्वारा क्या कृतयुग्मरूप होते हैं ? अथवा पोजरूप होते हैं ? अथवा द्वापरयुग्मरूप होते हैं ? अथवा कल्यो जरूप होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा ! ओघादेसेण वि विहाणादेसेण वि कडजुम्मा, नो तेओगा, नो दावरजुम्भा, नो कलिओगा' सामान्यरूप से भी और विशेषरूप से भी केवलज्ञान की पर्यायों द्वारा समस्तजीव कृतयुग्मरूप हैं, क्योंकि केवलज्ञान की पर्याय सदा अनंत और अनवस्थिन होती है। अतः वे योज अथवा छापरयुग्मरूप अथवा कल्पोजरूप नहीं होते हैं । 'एवं मणुस्सा वि एवं सिद्धा वि' इसी प्रकार से मनुष्य भी और सिद्ध भी केवलज्ञान की पर्याय से कृतयुग्मरूप ही होते हैं वोजादिरूप नहीं होते हैं । 'जीवे णं હવે ગૌતમસ્વામી અનેક જીવેાના આશ્રય કરીને પ્રભુશ્રીને એવુ પૂછે छे -जीवाण भते ! केवलनाणपज्जवेहिं पुच्छा' हे भगवन् सघा કેવળજ્ઞાનના પર્યાયાદ્વારા શુ કૃતયુગ્મ રૂપ હોય છે? અથવા ત્યેાજ રૂપ હોય છે ? અથવા દ્વાપરયુગ્મ રૂપ ાય છે ? અથવા લ્યેાજ રૂપ હાય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमां प्रभुश्री हे छे - 'गोत्रमा ! ओघाईसेण वि विहाणादेसेण वि कडजुम्मा तेगा, नोदावर जुम्मा नो कलि ओगा' गाभान्ययथाथी पथ भने विशेषषायाधी પણ કેવળજ્ઞાનના પાંચૈા દ્વારા સઘળા જીવા કૃતયુગ્મ રૂપ હોય છે કેમકે કેવળ જ્ઞાનના પર્યાય સદા અન ત અને અનવસ્થિત હોય છે તેથી તેએ ચૈાજરૂપ અથવા द्वापरयुग्भमनायो ३५ होता नथी 'एव मणुस्सा वि सिद्धा वि' ०४ પ્રમાણે મનુખ્ય અને સિદ્ધો પણ કેવળજ્ઞાનના પર્યાયે થી કૃતયુગ્મ રૂપજ હાય हे योग विगेरे हेोता ' नथी, 'जीवेण भवे । मइ अन्नाणपज्जवेहिं
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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