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________________ 1. भगवतीस्से गादा' ओघादेशेन-सामान्यतः कृतयुग्मप्रदेशावगाढा जीवा भवन्ति, समस्त जीवै. रखगाढाना लोकप्रमाणावस्थितपदेशानामसंख्यातत्वाच्चतुरनता एवेति, 'ओघा. देशेन कृतयुग्मप्रदेशावगाढा भवन्ति । 'नो तेग० नो दावर० नो कलि. भोग' नो योजप्रदेशावगाढाः नो द्वापरयुग्मप्रदेशावगाहाः नो कल्योजदे शावगादा भवन्तीति । 'विहाणादेसेणं कडजुम्मपएमोगाढा वि जाव-कलिोगः पएसोगाढावि' विधानादेशेन-भेदमकारेण एकैकश इत्यर्थः कृतयुग्मप्रदेशावगाढा अपि यावत-कल्योजमदेशावगाढा अपि । यावत् पदेन योजनदेशावगाढा अपि द्वापरयुग्मपदेशावगाढा अपि इत्यनयोः संग्रहो भवति । विधानादेशतस्तु 'विचित्रत्वात् अवगाहनायाः युगपत्-चतुर्विधारते जीवा भवन्तीति भावः । 'नेर ओघादेश से अर्थात् सामान्यतः कृतयुग्मप्रदेशावगाढ हैं, क्योंकि समस्त जीवों द्वारा अवगाढ़ प्रदेशों के लोक प्रमाण अवस्थित असंख्यात होने से उनमें चतुरग्रता-कृतयुग्मंता होती है, इसलिये जीव सामान्यतः कृत. युग्मप्रदेशावगाढ कहे गये हैं । 'नो तेओग० नो दावर० नो कलिओ' ज्योजप्रदेशावगाढ अथवा द्वापर युग्मप्रदेशावगाढ अथवा कल्योजप्रदेशा' वगाढ नहीं कहे गये हैं । 'विहाणादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा वि जाव कलिओगपएसोगाढा चि' विधान की अपेक्षा से अर्थात् एकएक की अपेक्षा से वे जीव कृतयुग्मप्रदेशावगाढ भी होते हैं यावत् कल्योजप्रदेशावगाढ भी होते हैं । यहां यावत्पद से योजप्रदेशावगाढ भी होते हैं, और द्वापरयुग्मप्रदेशावगाढ भी होते हैं' ऐसा पाठ गृहीत हुआ है। विधान की अपेक्षा से जो एक कालमें चारों प्रकारके होने का कथन किया गया है उसका कारण अवगाहना की विचित्रता है। अतः वे युगपत्-एक साथ ન્યપણાથી કૃતયુગ્મ પ્રદેશાવગઢ છે કેમકે સઘળા જી દ્વારા અવગાઢ પ્રદેશો અસખ્યાત હોવાથી તેમાં ચારે રાશિપણાથી કૃતયુગ્મપણું હોય છે તેથી જીવ सामान्यपाथी कृतयुम प्रशापसाद छ. 'नो तेोग० नो दावर० नो कलिओ०' या प्रदेशावाद अथवा १५२युम प्रशावाद अथवा त्या प्रशावाट ४ह्या नथी 'विहाणादेसेण कडजुम्मपएमोगाढा वि जाव कलि ओग पएसोगाढा वि' विधानाशनी अपेक्षाथी अर्थात से पनी अपेक्षाक्षी તે જી કૃતયુગ્ય પ્રદેશાવગાઢ પણ હોય છે, યાવત્ કલ્યોજ પ્રદેશાવગાઢ પણ હોય છે. યાવત્ શબ્દથી ચોજ પ્રદેશાવગાઢ પણ હોય છે. અને દ્વાપર યુગ્મ પ્રદેશાવગાઢ પણ હેય છે. આ પાઠ ગ્રહણ કરાય છે, વિધાન દેશની અપેક્ષાથી જે આ કથન કર્યું છે, તેનું કારણ અવગાહનાનું વિચિત્રપણું છે तथा तसा यारे प्रा२।। डाय छे. 'मेरइया ण पुच्छ।' 3 अगवन नेशया
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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