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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०६५ उ.२ ८४ स्थितास्थितद्रव्यग्रहणनिरूपणम् ५४३ मसौ केनावृतत्वं विद्यते इयतः उच्यते 'नियम छदिसि' इति, यदपि वायुकायिक जीवानां सनाड्या बहिरपि वैक्रियशरीरं भवति तदिह न विवक्षितमप्रधानत्वात्तस्य। तथाविधलोकान्तनिष्कुटे वा वैक्रियशरीरवान वायुनं भवतीति । एवं आहारगसरीरताए वि' एवम्-अनेनैव प्रकारेण आहारकशरीरसंबन्धेऽपि सर्वमवगन्तव्यमिति 'जीवेणं भंते जीव खलु भदन्त ! 'जाई दबाई तेयंगसरीरचाए गेण्हई पुच्छ। पानि द्रव्याणि तैजसशीरतया गृह्णाति इति पृच्छा प्रश्नः। तैजसशरीरनिष्पत्यर्थ यानि द्रव्याणि गृहणाति जीवस्तानि द्रव्याणि किं स्थितानि-अस्थितानि वेति मश्नः। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'ठियाई गेण्हइ नो अठियाई गेण्हइ' स्थितानि द्रव्याणि गृणाति नो अस्थितानि गृह्णाति स्थितानि गृहाति, जीवावगाहक्षेत्राभ्यन्तरीभूतान्येव गृणातीति नो अस्थितानि न तदनन्तरवर्तीनि लोकदेश की छहों दिशाओं में से आहार ग्रहण करता है । यद्यपि वायुकायिक जीवों के प्रसनाडी के बाहर भी चैक्रियशरीर होता है। -परन्तु अप्रधान होने से उसकी यहां विवक्षा नहीं है । अथवा-तथाविध लोकान्त निष्क्रुट में वैक्रिय शरीर वाला नहीं होता है। इसी प्रकार से आहारकशरीर के सम्बन्ध में भी सब कथन जानना चाहिये। अथ गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'जीवे णं भंते। जाई दवाई तेयगसरीरत्ताए गेहई' पुच्छा हे भदन्त ! जीव जो पुद्गलद्रव्यों को तैजसशरीररूप से ग्रहण करते है वे पुद्गलद्रव्य क्या स्थित होते हैं अथवा 'अस्थित होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! ठियाई गि नो अठियाई' हे गौतम! वे पुद्गलद्रव्य स्थित होते हैं अस्थित नहीं होते हैं। હોય છે તેથી તે વિવક્ષિત દેશની છએ દિશાઓમાંથી આહાર ગ્રહણ કરે છે જો કે વાયુકાયિક જીના ત્રસનાડીની બહાર પણ વૈક્રિય શરીર હોય છે, પરંતુ અપ્રધાન હોવાથી તેની ત્યાં વિવક્ષા કરી નથી. અથવા તે પ્રકારના લોકાન્તના નિષ્કુટમાં ક્રિય શરીરવાળા વાયુ હોતા નથી. આ પ્રમાણે આહારક શરીરના સંબ ધમાં પણ સઘળું કથન સમજવું જોઈએ. . गौतमलामी प्रभुन मे पूछे छे ४-'जीवे ण भंते ! जाई दवाई यगसरीत्ताए गेण्हइ पुच्छा' है मगन् रे । पुरस द्रयान तेरस शरीर પણાથી ગ્રહણ કરે છે, તે પુલ દ્રવ્યો, શું સ્થિત હોય છે કે અસ્થિત खाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा महावी२ ५९ ४ छ है-'गोयमा । ठियां • गेण्डा नो अठियाइ' हे गौतम ! ते पुस २०५ स्थित डाय छे भस्थित
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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