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________________ भगवती सूत्रे वैक्रियशरीरनि'पादनायेत्यर्थः गृहगाति 'दाई कि ठियाई गेव्हड अठियाई गेव्हह तानि कि स्थितानि गृह्णाति अस्थितानि वा गृह्णातीति प्रश्नः । उत्तरमाह - ' एवं चैत्र' इत्यादि, 'एवं चेत्र' एवमेव औदारिकशरीरनिष्पत्य यया यथा गृहगावि तथैव वैकियशरीरनिष्पत्त्यर्थमपि पुहूकान् गृहूगाठीति भावः । पूर्वापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तद्दर्शयति- 'नवरे' इत्यादि, 'नवरं नियमं छद्दिसि' नवरं नियमात् पदिशम् एतदेव वैलक्षण्यं यद् वैक्रियशरीरनिप्पादनाय नियमतः पदिग्भ्यः पुद्गलान गृहगावीति, अयमाशयः चैक्रियशरीरखान् प्रायशः पञ्चेन्द्रिय एव भवति, स च त्रसनाड्याः मध्ये एव भवति, तत्र च विवक्षितलोक देशस्य पण्णामपि दिशा ५८२ भदन्त ! जीव जो पुद्गलद्रव्यों को वैक्रिय शरीर रूप से ग्रहण करता है यह स्थित उन द्रव्यों को ग्रहण करता है अथवा अस्थित उन उन द्रव्यों को ग्रहण करता है ? इसके उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं-'एवं चेव' हे गौतम ! जिस प्रकार से औदारिक शरीर की निष्पत्ति के लिये जीव पुल की स्थितास्थित दलद्रव्यों को ग्रहण करता है उसी प्रकार से वह वैक्रिय शरीर की निप्पत्ति के लिये भी स्थित अस्थित पुद्गलद्रव्यों को ग्रहण करता है, परन्तु इस कथन में जो पूर्व कथन की अपेक्षा अन्तर है वह इसी बात को प्रकट करने के अभिप्राय से सूत्रकार सूत्र कहते हैं 'नवरं छद्दिसिं एवं आहारगसरीरत्ताए वि' जीव वैक्रिय शरीर की निष्पत्ति के लिये नियम से छहों दिशाओं में से पुलों को ग्रहण करता है । तात्पर्य इसका ऐसा है वैक्रिय शरीर वाला प्राय. पञ्चेन्द्रिय जीव ही होता है और वह स नाडी के बीच में ही होता है। इसलिये वह विवक्षित જીવ જે પુદ્ગલ દ્રવ્યેાને વૈક્રિય શરીર રૂપે ગ્રહણ કરે છે, તે સ્થિત એવા તે દ્રવ્યેાને ગ્રહણુ કરે છે, ? અથવા અસ્થિત એવા તેદ્રબ્યાને ગ્રહણ કરે छे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभु गौतमस्वामीने हे है है- ' एवं चेव' हे ગૌતમ ! જે પ્રમાણે ઔદારિક શરીરની પ્રાપ્તિ માટે જીવ પુદ્ગલેને-સ્થિત: અસ્થિત પુદ્ધઃ -દ્રવ્યેને ગ્રહણ કરે છે, એજ રીતે તે વૈક્રિય શરીરની પ્રાપ્તિ માટે સ્થિત અસ્થિત પુદ્દલ દ્રવ્યેને ગ્રહણ કરે છે, પરંતુ આ કથનમાં પૂણેसाना ४थन ४२तां गुहायागु छे, ते 'नवर' नियमं छद्दिसि एवं आहारगसरीरતાપ વિ' એ પ્રમાણે છે કે જીવ વૈક્રિય શરીરની પ્રાપ્તિ માટે નિયમથી છએ દિશાએમાંથી પુદ્ગલેાને ગ્રહણ કરે છે, આ કથનનુ તાત્પર્યાં એ છે કે વૈક્રિય શરીરવાળા પ્રયઃ પુ'ચેન્દ્રિય જીવ જ ડાય છે. અને તે ત્રસ નાડીના વચમાં 2
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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