SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 602
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८४ भगवती सूत्रे 1 द्रव्याणि ग्रहणाति तस्याकर्षणपरिणामाभावात्, अथवा स्थितानि स्थिराणि द्रव्याणि गृह्णाति नो अस्थितानि - अस्थिराणि तथाविवस्व मावश्वादिति, 'सेसंजहा ओरालि सरीरस्स' शेषम् यथौदारिकशरीरस्य औदारिकशरीरप्रकरणे यथायथा कथितं तत्सर्वमिहापि अनुसन्धेयमिति । 'कम्मगसरीरे वि एवं चेव' कार्मणशरीरेऽपि एवमेत्र - पूर्वोक्तप्रकारेणैव कार्मणशरीरनिष्पादनेऽपि पुद्गलानामाहरणादिकमवगन्तव्यमिति भावः । एवं जाव भावओ वि एवं चैव' एवं यावत् अर्थात् तैजसशरीर की निष्पत्ति के लिये जिन पुद्गल द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है वे पुद्गलद्रव्य जीवावगाह क्षेत्र के अभ्यन्तरवर्ती हो होते हैं उसके बाहर के क्षेत्रवर्ती नहीं होते हैं। क्योंकि उनद्रव्यों को खींचने में वह समर्थ नहीं होता है । अथवा वह स्थित द्रव्यों को ही ग्रहण करता है अस्थित ब्रव्यों को ग्रहण नहीं करता है क्योकि उसका ऐसा ही स्वभाव है । 'शेषं यथा औदारिकशरीरस्य' इसके अतिरिक्त और सब कथन जैसा औदारिक शरीर के प्रकरण में कहा गया है वैसा ही वह सच यहां पर जानना चाहिये। 'कम्मगसरीरे वि एवं वेद' पूर्वोक्त प्रकार से ही कार्मण शरीर के निष्पादन में भी पुद्गलों के आहरण के सम्बन्ध में कथन जानना चाहिये । ' एवं जाव भावओ विगेव्हर' इस प्रकार कार्मण शरीर यावत् भाव से भी ग्रहण करता है यहां तक कथन करना चाहिये। यहां यावत्पद से वह द्रव्य से भी पुद्गल द्रव्यों - होता नथी, अर्थात् तैक्स -शरीरनी नियंत्ति-प्राप्ति भाटे लव ने युद्धस દ્રવ્યોને ગ્રહણ કરે છે, તે પુદ્ગલ દ્રવ્ય જીવના અવગાહે ક્ષેત્રની અભ્યન્તર વર્તીજ હાય છે તેની બહારના ક્ષેત્રવત્ હાતા નથી. કારણ કે તેને ખેંચવા માટે સમજ હેાય છે. અથવા તે સ્થિત દ્રવ્યેાને ગ્રહણ કરે છે. અસ્થિત દ્રવ્યેને ગ્રહણ કરતા નથી. કારણ કે તેમને એ પ્રમાણેના જ સ્વભાવ છે. 'शेष ं यथा औदारिकशरीरस्य' मा अधन शिवाय सघणु स्थन मोहारि शरीरना પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કહેલ છે તેજ પ્રમાણેનુ' અહિયાં સમજવુ જોઇએ 'कम्मगसरीरे वि एवं चेव' धर्म शरीरनी प्राप्ति सभधभां पशु पूर्वोत अारेन युगयाना आर्डरना सभधभां समल सेवु' ' एवं जाव भावओ वि. રોન્દ્ર આજ રીતે કાણુ શરીર યાવત્ ભાવથી પણ ગ્રહણ કરે છે. આટલા સુધીનું થન ગ્રહણ કરવું જોઈ એ. અહીયા ચાવત્ પદથી તે દ્રવ્યેથી પણ તે
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy