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________________ चन्द्रिका टीका श०२५ उ.२ ०४ स्थितास्थितद्रव्यग्रहणनिरूपणम् ५८१ गृणाति, भावतो वर्णगन्धरसस्पर्शयुकानि द्रव्याणि गृहगाति इत्यादि सर्वमादारोद्दे शकमरुरणं वाच्यम् कियत्पर्यन्त प्रज्ञापनाया आहारोदेशप्रकरणमध्येतव्यम् तत्राह'जाव' इत्यादि, 'जाव दिव्याघारणं छदेनि' यावत् निर्व्याघातेन पदिशम् 'वाघायं पच्च सिय विदिसि सिय चउदिर्मि सिय पंचद्विपिव्याघातं प्रतीत्यस्यात् - कदाचित् त्रिदिशम् स्यात् चतुर्दिशम् स्यात् पञ्च दिशम् | यदि कोऽपि प्रतिबन्धो न भवेता पम्योऽपि दिग्भ्य आकृष्ण पुद्गलान् गृह्णाति अथ कदाचित् पतिभवेत्तदा दिन प्रतिबन्धे सति विसृभ्यो दिग्भ्य आहृत्य पुद्गलान् गृहाति, दिग्द्वये प्रतिबन्ध के चतुर्दिग्भ्य आहृत्य गृह्णाति इति, 'जीवे णं मंते' जीवः खल्ल भदन्त ! 'जाई दवाई वेव्वियसरीरत्ताए गेण्ड' यानि द्रव्याणि वैक्रियशरीरतया , और कदाचित् पांच दिशाओं में से आये हुए पुद्गलो को ग्रहण करता है' यहां तक का कथन यहां पर कहना चाहिये यही बात 'ताई ददओ अनंत एसियाई खेत्तनो असंखेज्जप एसो गाढाइ एवं जहा पनवणाए पढमे० ' इस मृत्रपाठ द्वारा प्रकट की गई है। तात्पर्य इस का यही है कि कोई प्रतिबन्ध नहीं है तो वह छहों दिशाओं से खींच कर पुलों को ग्रहण करता है और यदि कदाचित् प्रतिबन्ध है तो वह यदि तीन दिशाओं में प्रतिबन्ध है तो तीन दिशाओं में से खींचकर पुलों को ग्रहण करता है और यदि दो दिशाओं में प्रतिबन्ध हैं तो वह चार दिशाओं में से पुद्गलों को खींचकर ग्रहण करता है ।. P अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं- जीवे णं भंते । जाइ दव्बाई' वेबविषयसरीरत्ताए गेहद ताई कि ठियाई गेव्हर अठिया गेह' हे દિશાઓમાથી અને કેઇ વાર પાંચ દિશાઓમાંથી આવેલા પુદ્દèાને ગ્રહણ रे छे मारता सुधीनु अथन अडींयां अहेवु लेखे ये वात 'ताई' दव्वभ जहा पन्नवणाए पढमे० ' अत एसियाई खेतओ असंखेज्जपरसोगाढाइ एव या सूत्रपाठ द्वारा अगर उस छे. तात्पर्य मा धननु मे - - अध પ્રતિબધ–રૂકાવટ ન હોય તેા તે છએ દિશાએમાંથી ખે‘ચીને પુદ્ગલેને ગ્રહણુ કરે છે. અને જો કદાચ પ્રતિખ ધ હાય તા તે તે ત્રણ દિશામાં પ્રતિમધ “હાય તા ત્રણ દિશાઓમાંથી ખેંચીને પદ્યાને ગૃહશુ કરે છે, અને જો એ દિશાએમાં પ્રતિબંધ હોય તે તે ચાર દિશાઓમાંથી પુદ્ગલેને ખે ચીને ગ્રહણ કરે છે. ' हवे गौतमस्वामी असुने येवु छे छे है- 'जीवेण भंते ! जाइ दव्वाई वेडव्वियसरीरत्ताएं गेण्ड्इ ताइ किं ठियाई गेन्हइ अठियाई गेण्दह' हे लविन
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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