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________________ भगवतीसत्रे 'खेत्तो वि गेण्हइ' क्षेत्रतोऽपि गृह्णाति, कालो वि गेण्डइ कालतोऽपि गृह्णाति, ''भावओ वि गेव्ह' भावतोऽपि गृहातीति। द्रव्यादितः किं स्वरूपाणि गृह्णाति ? इत्याह-'ताई दबओ' इत्यादि । 'ताई दवभो अशंतपएसियाई दवाई तानि द्रव्यतोऽनन्तप्रदेशिकानि स्थितास्थितानि द्रव्याणि गृहणाति, 'खेतओ असंखेन्जपएसोगाढाइ' क्षेत्रतोऽसंख्यातप्रदेशावमाढानि द्रव्याणि गृणाति ? 'एवं जहा पक्षवणाए पढमे आहारुघलए' एवं यथा प्रज्ञापनायाः प्रथमे-अष्टाविंशतितमे आहारपदे प्रथमे आहारोद्देशके-कथितं तथैव सर्वमिहापि ज्ञातव्यम्-तथाहि-'कालो अण्णयरहियाई भारओ वण्णमंताई गंधमंताई रसमंताई फासमंताइ' इत्यादि, कालतः जघन्य मध्यमोत्कृष्टकालस्थिति केषु कानिचिदन्यतमस्थितिकानि द्रव्याणि औदारिक शरीर की निष्पत्ति के लिये ग्रहण करता है क्षेत्र की अपेक्षा भी वह जीव स्थित अस्थित द्रव्यो को औदारिक शरीर की निष्पत्ति के लिये ग्रहण करता है, काल की अपेक्षा वह स्थित अस्थित द्रव्यों को औदारिक शरीर की निष्पत्ति के लिये ग्रहण करता है, तथा भाव की अपेक्षा भी वह जीव स्थित और अस्थित द्रव्यों को औदारिक शरीर की निष्पत्ति के लिये ग्रहण करता हैं। द्रव्य की अपेक्षा यह जीव जिन स्थित अरिधत द्रव्यों को शरीर की निष्पत्ति के लिये ग्रहण करता है वे द्रव्य अनन्तप्रदेशों वाले होते हैं। तथा क्षेत्र की अपेक्षा वे द्रव्य • असंख्यात प्रदेशाश्रित होते हैं अर्थात् लोक के असंख्यात प्रदेशो में अवगाढ होते हैं। 'एवं जहा पत्रवणाए पढमे आहारूदेमए' इस प्रकार से प्रज्ञापला सूत्र के प्रथम आहार उद्देशक में कहे अनुसार यावत् 'प्रतिवन्ध सिवाय छहों दिशाओं से, और प्रतिबन्ध के सद्भाव में कदाचित् तीन दिशाओं में से कदाचित् चार दिशाओं में से કરે છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી પણ તે જીવ સ્થિત અસ્થિત દ્રવ્યને દારિક શરી' રની પ્રાપ્તિ માટે ગ્રહણ કરે છે. કાળની અપેક્ષાથી તે સ્થિત અસ્થિન દ્રવ્યોને * ઔદારિક શરીરની પ્રાપ્તિ માટે ગ્રહણ કરે છે. તથા ભાવની અપેક્ષાથી પણ તે ' જીવ સ્થિત અસ્થિત દ્રવ્યોને ઔદારિક શરીરની પ્રાપ્તિ માટે ગ્રહણ કરે છે. : દ્રવ્યની અપેક્ષાથી આ જીવ જે સ્થિત અસ્થિત દ્રવ્યોને ઔદારિક શરીરની પ્રાપ્તિ માટે ગ્રહણ કરે છે, તે દ્રવ્ય, દ્રવ્યની અપેક્ષાથી અનંત પ્રદેશવાળું | હોય છે. તથા ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી તે દ્રવ્ય અસંધ્યાત પ્રદેશના આશ્રયવાળું हाय छे. अर्थात न असभ्यात प्रदेशमा माद डाय छे. 'एवं जहा , पनवणाए पढमें आहारदेखए' मा शत प्रज्ञापन। सूत्रना पडता मा२४ ७६. 'શામાં કહ્યા પ્રમાણે યાવતું પ્રતિબંધ શિવાય છએ દિશાઓમાંથી અને પ્રતિ* ‘બંધ-રૂકાવટના સદુભાવમાં કઈ વાર ત્રણ દિશાઓમાંથી કઈ વાર ચાર
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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