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________________ प्रमेपचन्द्रिका टीका श०२४ उ.२१ सु०२ आनतातिदेवेभ्यः मनुष्येपूत्पत्तिः ३९९ तिमभिः पूर्वकोटिभिरभ्यधिकानि इहोस्कृष्टतः पड् भवग्रहणानि भवन्ति, तत्र देव भवास्त्रया, तेपामेकत्रिंशत्सागरोपमोत्कृष्टस्थितिकत्वेन एकत्रिंशत् त्रिभिर्गुणने जायन्ते प्रिनवतिः सागरोपमाणि । तथा त्रयो मनुष्यभवा इति। त्रिभिरुत्कृष्टस्थितिक मनुष्यभवः। प्रत्येकमेकपूर्वकोटित्वेन तिस्रः पूर्वकोटयोऽधिका भवन्ति इति, 'एवइयं जाव करेज्जा' एतावन्तं कालं यावत् कुर्यात् एतावत्कालपर्यन्तं ग्रैवेयकदेवगति मनुजगतिं च सेवेत, तथा एतावन्तमेव कालं यावद् ग्रैवेयकदेवगतो मनुजगतो प गमनागमने कुर्यादिति कायसंवेधचरमः पथमो गमः १ इति। 'एवं से सेम वि अट्ठ गमएस' एवम्-प्रथमगमवदेव शेषेष्वपि द्वितीगदारभ्य नवान्ताटगमेषु उत्पादद्वारादारभ्य कायसंवेधान्तद्वारजातं निरूपणीयम् इति 'नवर ठिई तिहिं पुग्धकोडीहिं अमहियाई उत्कृष्ट से तीन पूर्वकोटि अधिक ९३ तरानवे सागरोपम का है। यहाँ उत्कृष्ट से ६ छह भवों का ग्रहण होता है। इनमें देव भव ३ होते हैं। एक भव की उत्कृष्टस्थिति ३१ इकतीस सागरोपम की है। अतः तीन भवों की मिलाकर वह ९३ सागरोपम हो जाती है। तथा ३ व उत्कृष्ट स्थिति वाले मनुष्यों के होते हैं। मनुष्यभव की उत्कृष्ट स्थिति १ पूर्वकोटि की है। इसलिये ९३ तेरानवे सागरोपम में ३ तीन पूर्वकोटि अधिकता इस प्रकार से कही गई है। 'एवयं जाव करेजा' इस प्रकार वह जीव इतने काल तक ग्रैवेयक देवगति का और अनुष्यगति का सेवन करता है और इतने ही काल तक वह उसमें गमनागमन करता है। ऐसा यह कायसवेध तक प्रथम गय है। ‘एवं सेमेसु वि अढगमएस्तु' इम प्रथम गम के जैसे ही धाकी के आठ गमों में कथन जानना चाहिये। अर्थात् ત્રણ પૂર્વકેટ અધિક ૯૩ ત્રાણુ સાગરોપમને છે. અહિયાં ઉત્કૃષ્ટથી ૬ છ નું ગ્રહણ થાય છે. તેમાં દેવભવ ૩ ત્રણ હોય છે. એક ભવની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ૩૧ એકત્રીસ સાગરોપમની થઈ જાય છે. તથા ૩ ત્રણ ભવ ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા મનુષ્યના હોય છે. મનુષ્ય ભવની ઉત્કૃષ્ટ રિથતિ ૧ એક પૂર્વકેટિની છે. તેથી ૯૩ ત્રાણ સાગરોપમમાં ત્રણ પૂર્વકેટિનું અધિકપણું આ રીતે ४. छ. 'एवइयं जाव करेज्जा' ua a 24tan sim सुधी अवेयर દેવગતિનું અને મનુષ્ય ગતિનું સેવન કરે છે. અને એટલા જ કાળ સુધી તે તેમાં ગમનાગમન કરે છે આ રીતે આ કાયવેધ સુધીને પહેલે ગમ કહ્યો છે. ૧ - 'एवं सेसेसु वि अगमएसु' मा पडसा माना ४थन प्रभारी माडीना આઠ ના સંબંધમાં કથન સમજવું જોઈએ અર્થાત્ બીજા ગમથી આર.
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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