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________________ ४७८ भगवतीचे 'सो चेव उक्कोसकालहिइएसु उबवन्नो' स एव पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका उत्कृष्टकालस्थितिकेषु सप्तमपृथिवीनैरपिके पु उत्पद्येत रा खलु भदन्त ! किय कालस्थितिकेषु उत्पधेत 'सच्चे। लद्धी जाच अनुबंधोत्ति' सैव कन्धिर्यावदनुवन्ध इति परिमाणादारम्प अनुबन्धान्त सर्वमपि प्रकरणं पूर्ववदेव प्रश्नोत्तराभ्यां वक्तव्यमिति । 'भवादेसेण जहन्नेणं तिन्नि भागहणाई” भनादेशेन-भवप्रकारेण जघन्येन त्रीणि भवनहणानि 'उकोसेणं पंचभवग्गहणाई' उत्कर्षेण पञ्चभवग्रहणानि, तत्र त्रीणि मत्स्यभवग्रहणानि, द्वे च नारकभवग्रहणे इति पञ्च । एतस्मादेव वचनादु त्कृष्ट स्थितिषु सप्तम्यां वारद्वयमेवोल्पद्यते, इत्यवसीयते । 'काला 'सो चेन पकोसकालटिइएस्तु उववन्नो.' इस सूत्र द्वारा गौतम प्रभु से ऐसा पूछ रहे हैं-हे भदन्त ! यदि वह पर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले लसन पृथिवी सम्बन्धी नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य है तो वह वहां कितने काल की स्थिति बाले नैरपिकों में उत्पन्न होता है ? इसके उत्सर में प्रभु कहते हैं-'लच्चेव लद्धी जाव अणुबंधोत्ति 'हे गौतम ! यहाँ पूर्व परिमाण से लेकर अनुष्यन्ध तक का समस्त कथन पहिले के जैसा ही प्रश्नोस्तरों द्वारा प्रकट कर लेना चाहिये, 'भवादेसेणं जहन्नेणं तिणि भवगगहणाई' भव की अपेक्षा जघन्य से तीन भवों को ग्रहण करने तक और उत्कृष्ट से 'पंच भवरगहणाई' पांच भवों को ग्रहण करने तकतीन भव मत्स्य के और दो भव नारक के-इस प्रकार से पांच भवों को ग्रहण करने तक वह उस गति का सेवन करता है और इतने 'सो चेव उकासकाल दुईएसु उपवन्नो०' मा सूत्रथी गौतमत्वामी प्रभुने मधु પૂછે છે કે-હે ભગવન જે તે પર્યાપ્ત સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ અનિવાળા જીવ ઉત્કૃષ્ટ કાળની સ્થિતિવાળા સાતમી પૃથ્વીના નચિકેમાં ઉત્પન્ન થવાને યોગ્ય હોય તો તે ત્યાં કેટલા કાળની સ્થિતિવાળા નિરયિકમાં ઉત્પન્ન થાય छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रसु ४७ छ -सच्चेव लद्धी जाव अणुवंधोत्ति है ગતમ! અહિયાં પૂર્વ પરિમથી લઈને અનુબંધ સુધીનું સઘળું કથન પહેલાં gu प्रभास प्रश्नोत्तरे द्वारा ही सेवा नये. 'भवादेखे णं जहन्नेणं तिणि भवगहणाई' सनी अपेक्षा न्यथी त्रभवाने अड ४२i सुधी भने कृष्टथी 'पंच भवग्गहणाई' iय सवान अय ४२ता सुधी मेटले ऋण લાવ માછલાના અને બે ભવ નારકના આ રીતના પાંચ ભને ગ્રહણ કરતાં
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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